अग्निवीर भर्ती योजना: कहीं कृषि कानूनों की तरह न हो जाए ‘अग्निपथ’ का हश्र, आखिर हिंसक विरोध का क्या औचित्य? अजय बोकिल
अग्निपथ योजना मामले में भी जिस तेजी से युवाओं में प्रतिरोध फैला, बड़े पैमाने पर तेजी से इकट्ठा होकर युवा सड़कों पर उतर आए और हिंसा भी शुरू कर दी, यह बिना किसी नेटवर्क के संभव नहीं है। सोशल मीडिया की इसमें बहुत बड़ी और नकारात्मक भूमिका है।
केन्द्र सरकार द्वारा सेना में अस्थायी सैनिकों की भर्ती को लेकर हाल ही में लागू ‘अग्निपथ योजना’ का बिहार सहित देश के सात राज्यों में जिस तरह से हिंसक विरोध जारी है, उससे यह सवाल उठने लगा है कि क्या इस योजना का हश्र भी कहीं कृषि कानूनो की तरह तो नहीं होगा? इसका एक बड़ा कारण योजना के विरोध के पहले दिन ही सरकार का बैकफुट पर जाकर अग्निवीर भर्ती की अधिकतम आयु सीमा 21 से बढ़ाकर 23 साल करना है। हालांकि यह केवल एक साल के लिए ही किया गया है।
इसके पीछे तर्क दिया गया कि कोरोना काल में सेना में भर्ती न हो पाने की वजह से ऐसा किया गया है। लेकिन यह प्रावधान तो योजना लाते समय ही किया जाना चाहिए था। दो साल से सेना में भर्तियां नहीं हुई हैं, यह तो सरकार को पहले से मालूम था। अगर युवाओं का यह हिंसक प्रदर्शन (जो प्रायोजित भी हो सकता है) ऐसे ही जारी रहा तो मुमकिन है कि योजना में और भी संशोधन होते चले जाएं। हालांकि सरकार अभी ज्यादा समझौते के मूड में नहीं दिख रही है। क्योंकि ज्यादा परिवर्तन का अर्थ योजना की भ्रूण हत्या ही होगा।
दूसरी तरफ भारी विरोध प्रदर्शन पर उतरे युवाओं को समझाने का भी कहीं कोई ठोस प्रयास होता नहीं दिख रहा है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जरूर ट्वीट किया कि अग्निवीर के रूप में सेना की नौकरी ‘मां भारती की सेवा का अपूर्व अवसर है। लेकिन इस पर प्रतिप्रश्न यह हुआ कि मां भारती की सेवा का सुअवसर महज चार साल के लिए ही क्यों, 17 साल के लिए क्यों नहीं?
अग्निपथ-सरकार की महत्वाकांक्षी योजना
बेशक अग्निपथ योजना सरकार की एक महत्वाकांक्षी योजना है। कहा जा रहा है कि वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने इसे काफी मेहनत और सोच समझ कर तैयार किया है। योजना के तहत इस साल 46 हजार अग्निवीरों की भर्ती की जानी है। बताया जा रहा है कि
यह सेना को ज्यादा युवा और सक्षम बनाने के अभियान का अहम हिस्सा है। साथ ही सेना के कई दूसरे खर्चों को बचाकर उसे ज्यादा आधुनिक और स्मार्ट बनाने पर अधिक राशि खर्च करना है। योजना के अंतर्गत सेना के तीनों अंगो में सैनिक स्तर पर अब अग्निवीरों की ही भर्ती होगी। भर्ती की न्यूनतम आयु साढ़े 17 वर्ष और शैक्षणिक योग्यता दसवीं पास है।
अग्निपथ दरअसल देशव्यापी शॉर्ट-टर्म यूथ रिक्रूटमेंट स्कीम है। पहली भर्ती प्रक्रिया में युवाओं को छह महीने की ट्रेनिंग दी जाएगी। यह अवधि सेवा के कुल चार साल में शामिल होगी। हर अग्निवीर को भर्ती के पहले साल 30 हजार रू. महीना तनख्वाह मिलेगी। इसमें से 21 हजार रू. उसे वेतन के रूप में मिलेंगे और बाकी 9 हजार रू. अग्निवीर कॉर्प्स फंड में जमा होंगे। फंड कांट्रीब्यूटरी होगा, जिसमें इतनी राशि सरकार भी डालेगी।
दूसरे साल अग्निवीर की तनख्वाह बढ़कर 33 हजार, तीसरे साल 36.5 हजार तो चौथे साल 40 हजार रुपये हो जाएगी। फंड की राशि तथा ब्याज के रूप में जमा 11.71 लाख रू. उसे नौकरी से बाहर होते समय मिलेंगे। साथ ही सेवा के दौरान शहीद होने या दिव्यांग होने पर आर्थिक मदद का मिलेगी।
शहीद के परिवार को सेवा निधि समेत एक करोड़ से ज्यादा की राशि ब्याज समेत दी जाएगी। साथ ही शेष सेवा अवधि का वेतन भी दिया जाएगा। कुल अग्निवीरों में से एक चौथाई को अच्छे रिकाॅर्ड के आधार पर सेना में पक्की नौकरी दी जाएगी।
युवाओं के पास कई तरह के अवसर
पहली नजर में यह योजना आकर्षक लगती है, क्योंकि आजकल दसवीं पास के लिए 30 हजार की नौकरी मिलना मुश्किल ही है। भर्ती युवा सेना अनुशासन, शस्त्र संचालन और युद्ध कला की ट्रेनिंग लेंगे। नौकरी से बाहर होने के बाद वो दूसरी नौकरियों में भी जा सकेंगे। सरकार ने भरोसा दिलाया है कि सेवा मुक्त अग्निवीरों को केन्द्रीय सशस्त्र बलों और पुलिस आदि की नौकरी में प्राथमिकता मिलेगी।
वर्तमान में सेना में एक सैनिक की पक्की नौकरी भी साढ़े 17 साल की होती है। लेकिन उसे आजीवन पेंशन और साथ ही तमाम दूसरी सुविधाएं भी मिलती रहती हैं। मोटे पर योजना अच्छी होने के बाद भी युवा इसका विरोध क्यों कर रहे हैं, यह बड़ा सवाल है?
इसका सबसे ज्यादा हिंसक रूप बिहार में देखने को मिल रहा है। वहां भारी तोड़फोड़ हो रही है। रेल गाडि़यों को आग लगाई जा रही है। कोई किसी की नहीं सुन रहा। याद करें कि इस साल जनवरी में भी बिहार और यूपी में रेलवे की सरकारी नौकरी के आकांक्षी युवाओं ने हिंसक प्रदर्शन किए थे।
जहां प्रदर्शन हो रहे हैं, ये ज्यादातर वो राज्य हैं, जहां सेना में सबसे ज्यादा भर्ती होती है, जहां रोजगार के दूसरे अवसर बहुत कम हैं और जहां सेना की नौकरी देश सेवा के साथ पक्की नौकरी की गांरटी भी है, जो एक मानसिक निश्चिंतता और सामाजिक प्रतिष्ठा भी देती है। ऐसे राज्यों के युवाओं का एकमात्र सवाल यही है कि चार साल बाद क्या?
खड़े हैं कई सारे सवाल?
क्या भरी जवानी में वो सड़क पर होंगे? जो सेना या दूसरे सशस्त्र बलों में नहीं जा सकेंगे, वो क्या करेंगे? खतरा यह भी है कि कुछ सैन्य प्रशिक्षित युवा गलत रास्तों पर भी जा सकते है। चार साल की सेवा के दौरान जिनकी शादियां वगैरह हो जाएंगी, उनका पारिवारिक दायित्व भी बढ़ जाएगा। जिंदगी उन्हें नए सिरे से शुरू करनी होगी। अगर यही होना है तो वो अग्निवीर क्यों बनें?
बेशक सरकार की यह योजना कोई अनिवार्य सैन्य सेवा नहीं है। जिसे शर्तें सूट करती हों, वो अग्निवीर बने। उसके सामने दूसरे विकल्प भी खुले हैं। लेकिन जो सेवा शर्तों से असहमत है, उसे हिंसक प्रदर्शन करने का कोई अधिकार नहीं है। हालांकि आंदोलनकारी युवाओं का कहना है कि अग्निपथ योजना की सेवा शर्तें उनके ‘रोजगार के अधिकार का हनन’ है।
भारतीय संविधान में काम का अधिकार किसी भी नागरिक का मौलिक अधिकार है। ऐसे में अग्निपथ योजना पर उठा विवाद कोर्ट में भी जा सकता है।
अहम सवाल यह भी है कि सरकारी नौकरियों को लेकर युवा इतने ज्यादा संवेदनशील क्यों हैं? क्यों उनके लिए यह जीने-मरने का सवाल बन जाता है? जबकि देश की कुल आबादी के महज 4 फीसदी को ही सरकारी अथवा सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरी मिल पाती है। इसका एक मात्र कारण सरकारी का नौकरी का सर्वाधित सुरक्षित होना, संवैधानिक अधिकार मिलना, पब्लिक में रूआब होना और यथा संभव भ्रष्टाचार की गुंजाइश होना भी है।
अमूमन बिहार और यूपी में बड़े पैमाने पर सेना व अन्य सरकारी नौकरियों की भर्ती परीक्षा पास करने के लिए युवा कोचिंग लेते हैं। पिछले दिनों रेलवे भर्ती में कथित धांधली के विरोध में उभरे युवा हिंसक प्रतिरोध के पीछे कोचिंग माफिया को भी एक कारण बताया गया था। हर प्रतियोगी परीक्षा और उसके ताने-बाने से उनके अपने आर्थिक हित जुड़े होते हैं। इसमें कोई भी बदलाव कोचिंग माफिया के हितों को प्रभावित करता है।
हिंसा के पीछे की साजिश
अग्निपथ योजना मामले में भी जिस तेजी से युवाओं में प्रतिरोध फैला, बड़े पैमाने पर तेजी से इकट्ठा होकर युवा सड़कों पर उतर आए और हिंसा भी शुरू कर दी, यह बिना किसी नेटवर्क के संभव नहीं है। सोशल मीडिया की इसमें बहुत बड़ी और नकारात्मक भूमिका है।
इसका अर्थ यह भी नहीं कि युवाओं की आवाज को खारिज कर दिया जाए। उनका विरोध और मांग जायज हो सकती है, लेकिन सार्वजनिक सम्पत्ति को स्वाहा करना, पत्थरबाजी और तोड़फोड़ कर अपने आक्रोश को जायज ठहराने की कोशिश सर्वथा अस्वीकार्य है। ऐसी मानसिकता के लोग सेना या सुरक्षा बलों के लायक कैसे हो सकते हैं ?
एक अहम सवाल ये भी है कि ‘अग्निवीरों’ के साथ खुद सेना के भीतर किस तरह का व्यवहार होगा? क्या वो दोयम दर्जे के सैनिक होंगे या उन्हें पूर्णकालिक सैनिक के समान जिम्मेदारियां और अवसर मिलेंगे? सेना खुद उन पर कितना भरोसा करेगी? गोपनीय अभियानों में उन्हें शामिल किया जाएगा या नहीं? अग्निवीर इतनी कम अवधि में स्वयं को सेना के चरित्र में कितना ढल पाएगा? या उसकी स्थिति ‘होमगार्ड’ जैसी ही रहेगी? इनके जवाब अभी मिलने हैं।
वैसे योजना के पक्षधरों का कहना है कि आज वैश्विक और भारत की भू-राजनीतिक चुनौतियों को देखते हुए पहली जरूरत भारतीय सेना को ‘युवा’ बनाने की है। अब बड़ी संख्या के बजाए छोटी मगर कार्यक्षमता और तकनीकी रूप से दक्ष सेना की आवश्यकता ज्यादा है। ‘अग्निवीर’ उसी दिशा में बड़ा और सामयिक कदम है।
भविष्य में जो सेना की अपेक्षा के अनुरूप नहीं होंगे, उन्हें बाहर का रास्ता दिखाना अब ज्यादा आसान होगा, क्योंकि सेना देश सेवा का माध्यम है न कि पक्की नौकरी की गारंटी। अब लड़ाइयां आमने-सामने की जगह टैक्नोलाॅजी से ज्यादा लड़ी जा रही हैं। हमें भारतीय सेना को उसी के अनुरूप बनाना है। हालांकि इस पूरी योजना को लेकर सेना में भी दो तरह की राय हैं।
एक वर्ग इसे भारतीय सेना की कार्यशैली और क्षमता में जरूरी सामयिक बदलाव का प्रतीक मानता है तो दूसरा इसे सेना के मूलभूत चरित्र और तानेबाने से खतरनाक छेड़छाड़ के रूप में देखता है, जिसके नतीजे विपरीत भी आ सकते हैं।
‘अग्निपथ’ पर राजनीति भी हो रही है। विपक्ष ने मोदी सरकार की नीयत पर सवाल उठाते हुए कहा है कि खर्चो में कटौती के लिए सेना ही निशाने पर क्यों? सवाल कई हैं। लेकिन फिलहाल तो अग्निपथ योजना का पथ शुरू में ही सुलगता दिख रहा है। यह योजना भारतीय सेना को कितना सक्षम बनाएगी यह तो चार साल बाद ही पता चलेगा।
बहरहाल योजना की खामियों पर बात हो सकती है, लेकिन उसके उग्र विरोध का कोई औचित्य नहीं दिखता। कृषि कानूनों की तरह सरकार के लिए सबक यह है कि ऐसी कोई भी महत्वाकांक्षी योजना लागू करने के पहले उस पर व्यापक जनमत बनाना और संदेहों को समय रहते दूर करना जरूरी है। उम्मीद की जाए कि इस योजना का हश्र कृषि कानूनों की तरह नहीं होगा।