प्रशासनिक ‘वर्ण व्यवस्था’: इसका इलाज भी तो बताएं गृह मंत्री…

अमित शाह ने कहा कि हालत यह है कि दोनो शीर्ष सेवाओं में आपस में तालमेल नहीं है। आईएएस के नियमों को आईपीएस नहीं मानते। उन्हें लगता है कि आईएएस सबसे पहले अपने हित साधन और स्वार्थरक्षा के हिसाब से कानून और नियम बनाते हैं। यह भी प्रशासनिक सेवाओंमें अलग तरह का ब्राह्मणवाद है। जिसमें ब्राह्मण देवता पर सवाल उठाना नैतिक अपराध है।

अजय बोकिल

केन्द्रीय गृह मंत्री और भाजपा के दिग्गज नेता अमित शाह ने नौकरशाही में व्याप्त ‘वर्ण व्यवस्था’ का खुलकर जिक्र तो किया, लेकिन इसके ‘इलाज’ की कोई बात नहीं की। गोया यह लाइलाज मर्ज हो। जयपुर में आयोजित नार्दर्न काउंसिल की बैठक में शाह ने जो कहा, उसका आशय यही था कि आईएएस और आईपीएस दोनो ही केन्द्रीय सेवाएं हैं, लेकिन दोनों में वैसा तालमेल नहीं है, जैसा कि होना चाहिए।

तीनो कैडरों की दुनिया
मतभेद और ईर्ष्या अथवा परस्पर तुच्छ भाव ज्यादा है। बकौल शाह तीनो कैडरों ने अपनी दुनिया बना ली है, वो उसी में जीना चाहते हैं। हालांकि, बहुत से लोगों का मानना है कि भारत ब्यूरोक्रेसी के इसी ‘स्टील फ्रेम’ की वजह से कायम है। बावजूद तमाम मतभेदों के नौकरशाही एक छतरी के रूप में काम करती है। इसे व्यक्तिगत राग द्वेष के आईने में नहीं देखा जाना चाहिए।

लेकिन अमित शाह ने जो कहा, वो महज एक और शोशेबाजी है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इस तरह की आंतरिक खींचतान भारतीय ब्यूरोक्रेसी की हकीकत है। भले ही पहली दफा बहुत साफ और तंज के रूप में किसी वरिष्ठ मंत्री ने ऐसा कहा हो। इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विसेज (आईएएस) यानी भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी तो खुद को ही देश का भाग्यविधाता मानकर चलते हैं। निरीह जनता पर रौब झाड़ते हैं, दबंग आका के आगे बिछे चले जाते हैं। हालांकि, कुछ खुद्दार अफसर भी होते हैं। उनकी नस्ल दुर्लभ श्रेणी की है और वे व्यवस्था की प्रताड़ना से पीडि़त रहते हैं।

पब्लिक तो खाकी से डरती है
जबकि इंडियन पुलिस सर्विस (आईपीएस) यानी भारतीय पुलिस सेवा (पुलिस का कोई सर्वमान्य हिंदी अनुवाद नहीं है) का मानना है कि असल में सत्ता का डंडा तो उन्हीं के पास रहता है भले आईएएस खुद को तीसमारखां समझें। पब्लिक तो खाकी से डरती है। जबकि आईएएस की सोच अमूमन यही रहती है कि बस एक बार यह तमगा मिल जाए फिर बाकी दुनिया कदमो में हैं।

आजादी के 75 साल बाद भी
यही कारण है कि आजादी के 75 साल बाद भी प्रशासनिक सेवाओं के ज्यादातर अफसरों की मानसिकता ‘प्रजा पर राज’ करने के भाव से ही अभिप्रेरित है। यह सही है कि भारत में अधिकांश मामलों में सत्ता के शीर्ष सूत्र आईएएस अधिकारियों के पास ही रहते हैं, जिनमें आईपीएस भी शामिल हैं।

जबकि दोनो ही कैडर के अफसर कठिन प्रतियोगी परीक्षा पास करके आते हैं और दोनो की ही सेवाएं अखिल भारतीय मानी जाती है। मगर सच्चाई यही है कि गिने-चुने अफसर ही ऐसे होते हैं, जो लीक से हटकर और स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक की तरह सोचते और नवाचार करते हैं। ज्यादातर के लिए आईएएस और आईपीएस बनना यानी आजीवन सत्ता का निरंकुश उपभोग करना ही है।

शीर्ष सेवाओं में आपस में तालमेल नहीं- अमित शाह
अमित शाह ने कहा कि हालत यह है कि दोनो शीर्ष सेवाओं में आपस में तालमेल नहीं है। आईएएस के नियमों को आईपीएस नहीं मानते। उन्हें लगता है कि आईएएस सबसे पहले अपने हित साधन और स्वार्थरक्षा के हिसाब से कानून और नियम बनाते हैं। यह भी प्रशासनिक सेवाओंमें अलग तरह का ब्राह्मणवाद है। जिसमें ब्राह्मण देवता पर सवाल उठाना नैतिक अपराध है।

इसी से खीजे आईपीएस मौका लगते ही आईएएस को घेरना नहीं छोड़ते। ठीक वैसे ही कि जैसे ओबीसी सवर्णों को बेदखल तो करना चाहते हैं लेकिन उनका लक्ष्य भी ब्राह्मण बनना ही है। संक्षेप में कहें तो ‘प्रशासनिक ब्राह्मणत्व’ भी एक अवस्थिति है, जिसके प्रति जितना रोष है, उससे ज्यादा आकर्षण है।

इतिहास पर एक नजर
इतिहास में जाएं तो भारत में इस तरह की अखिल भारतीय सेवाओं की शुरूआत ब्रिटिश राज में शुरू हुईं, जब अंग्रेजों धर्म, समाजों, समुदायों में बंटे भारतीयों पर शासन करने के लिए एक स्वामीभक्त और तंत्रनिष्ठ सिस्टम दरकार थी। यह व्यवस्थाक उन्होंने बहुत समझकर और दूरगामी सोच के साथ बनाई थी।

अंग्रेजों की दृष्टि में विविधता और बहुआयामी संस्कृति वाले इस देश पर राज करने का यही सबसे बढिया तरीका था। इसीलिए जब भारत ब्रिटेन की रानी के साम्राज्य का सीधे तौर पर हिस्सा बना तो 1858 में इंपीरियल सिविल सर्विसेज की स्थापना हुई।

भारतीयों की एंट्री इसमें 1863 में ही हो सकी। कवीन्द्र रवीन्द्र के बड़े भाई सत्येन्द्रनाथ ठाकुर पहले भारतीय आईसीएस अफसर थे। आजादी के बाद 1950 में आईएएस का गठन हुआ। हालांकि, कई बड़े नेताओं की नजर में इन आईएएस का मोल अलग ही था।

समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नाडिस तो आईएएस की व्याख्या ‘आईएमसेफ’ के रूप में किया करते थे तो मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री रहे गोविंद नारायण सिंह आईएएस को ‘बड़े बाबू’ कहकर सम्बोधित करते थे। यह बात अलग है कि स्वतंत्रता के 75 साल बाद भी इसे सेवा का कोई कारगर विकल्प नहीं खोजा जा सका है।
केन्द्रीय गृहमंत्री ने जिस तीसरे वर्ण’ का जिक्र किया वो ‘राज्य प्रशासनिक सेवा के अफसर हैं।

तीसरे वर्ण’ का जिक्र
केन्द्रीय गृहमंत्री ने जिस तीसरे वर्ण’ का जिक्र किया वो ‘राज्य प्रशासनिक सेवा के अफसर हैं। इनकी अपनी दुनिया है। ये खुद को ‘भूमि पुत्र’ ( सन ऑफ साॅइल) मानते हैं। क्योंकि इस कैडर में ज्यादातर भर्ती उसी राज्य से होती है, जहां के ये निवासी होते हैं। मूल निवासी न भी हो तो इनकी प्रशासनिक दीक्षा एक ही राज्य में होने की वजह से माना जाता है कि वो जमीनी तासीर को भली-भांति समझते-बूझते हैं।

राजनीतिक आकाओं की मंशा को भांपने और तदनुसार खुद को ढालने का एक जन्म जात गुण इस कैडर में दिखाई पड़ता है। इन्हीं में से कई अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में चले जाते हैं, लेकिन मूल संस्कार तकरीबन कायम रहता है। केन्द्र और राज्य में अलग’अलग राजनीतिक दलों की सरकारें होने से इस ‘वर्ण’ का महत्व स्वयमेव ज्यादा है। प्रशासनिक अनुकूलन इनके डीएनए में होता है। कुछ जानकारों की नजर में प्रशासन की असली रीढ़ इसी वर्ण के अफसर होते हैं, चाहे वो प्रशासन में हों या पुलिस में।

चूंकि ये ‘भूमि पुत्र’ माने जाते हैं, इसीलिए आईएएस अथवा आईपीएस के प्रशासनिक ब्राह्मणवाद को नकारना इनका जन्म सिद्ध अधिकार होता है। अमित शाह का दर्द भी यही है। ये राज्य के अफसर केन्द्र के अफसरों के नियमो को धता बताने में गुरेज नहीं करते। क्योंकि ये राज्य हितों की रक्षा अपना नैसर्गिक कर्तव्य मानते हैं।

दिलचस्प बात यह है कि अमित शाह ने इस वर्ण व्यवस्था का खुलासा देश में बढ़ते साइबर क्राइम के संदर्भ में किया। उन्होंने कहा कि साइबर क्राइम को रोकने नए कानून भी बन जाएंगे, लेकिन सवाल उन पर प्रभावी अमल का है। वैसे आईएएस बनाम आईपीएस बहस बरसों पुरानी है। लेकिन इसका कोई ठोस नतीजा आज तक नहीं निकल सका है। आईपीएस खुद आईएएस को अपने से ज्यादा पावरफुल मानते हैं, इसलिए कुछ तो आईपीएस की नौकरी छोड़कर आईएएस बनते हैं।

यही तमन्ना राज्य प्रशासनिक सेवा के अफसरों की भी होती है। सामाजिक रूप से जाति व्यवस्था में तो फिर भी समरसता का इत्र घोला जा सकता है, लेकिन प्रशासनिक वर्ण व्यवस्था का इलाज हकीम लुकमान के पास भी होगा, ऐसा नहीं लगता।

शायद इसीलिए अमित शाह ने मर्ज तो बताया मगर मर्ज का इलाज नहीं सुझाया। शायद सरकार खुद भी इस रोग को लाइलाज ही रखना चाहती है। शायद इसी में उसका फायदा है। वैसे भी इलाज बहुत मुश्किल है, इसलिए कोई करना भी नहीं चाहता।

लेखक : वरिष्ठ संपादक
‘राइट क्लिक’ ( ‘सुबह सवेरे’ में प्रकाशित)

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