Lok Sabha Elections: राम लहर के सहारे मोदी अपना ही रिकाॅर्ड तोड़ सकेंगे?
Editorial: अजय बोकिल
अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर में भगवान रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के भव्य समारोह, करोड़ों हिंदुअों की इससे जुड़ी आस्था और इस महा आयोजन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर केन्द्रित फोकस के बाद राजनीतिक हलकों में यह सवाल तेजी से तैर रहा है कि दो माह बाद होने वाले 2024 के लोकसभा चुनाव पर इसका कितना असर होगा। क्या राम भक्ति में बहा बहुसंख्यक हिंदू समाज अपनी भाव विह्वलता को मोदी के पक्ष में वोटो में बदलेगा, बदलेगा तो कितना बदलेगा, क्या मोदी की अगुवाई और रघुराई की कृपा से मोदी 1957 के लोकसभा में कांग्रेस की विजय का रिकाॅर्ड तोड़ पाएंगे, जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने 371 सीटें जीती थीं और 47.8 फीसदी वोट हासिल किए थे। हालांकि कांग्रेस की विराट जीत 1984 में पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में हुई थी, जब कांग्रेस ने 414 सीटें और 46.86 फीसदी वोट हासिल किए थे।
हालांकि मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने भी 2019 के लोकसभा चुनाव में 303 सीटों के साथ अब तक की सर्वश्रेष्ठ जीत हासिल की थी। पार्टी का वोट शेयर भी बढ़कर 37:36 37:36 हो गया था। अब सवाल पूछा जा रहा है कि राम मंदिर इस वोट बैंक में कितना और जोड़ेगा? या भाजपा पिछले चुनाव के नतीजों तक भी नहीं पहुंच पाएगी, क्योंकि लड़खड़ाते ही सही इंडिया गठबंधन के रूप में कुछ विपक्षी पार्टियां लोकसभा चुनाव को ‘वन आॅन वन’ बनाने की कोशिश में लगी हैं। हालांकि यह गठबंधन चुनाव तक टिकेगा, इसकी संभावना कम ही लगती है। दूसरे, राम मंदिर को लेकर उठा आस्था का सैलाब कुछ दिन बाद बैठने लगेगा, जमीनी मुद्दे फिर हावी होंगे। बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी जैसे मुद्दे अगले चुनाव में फिर उभरेंगे, चुनावों पर इनका असर जरूर होगा। वैसे भाजपा का नारां इस बार 400 पार का है। अगर राम लहर जबर्दस्त ढंग से चली तो एनडीए सचमुच चार सौ पार कर जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हालांकि यह इतना आसान नहीं है।
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तीसरा, एक हद तक यह मुकाबला दो यात्रियों के बीच भी है। पहले तो खुद मोदी हैं, जो देश में जगह जगह रोड शो कर रहे हैं। दक्षिण में उनकी स्वीकृति पहले की तुलना में बढ़ी है। अब राम मंदिर इसमें कितना इजाफा करेग, यह देखने की बात है। लेकिन इतना तय है कि राम मंदिर की जानकारी दक्षिण में भी गांव गांव तक है। प्राण प्रतिष्ठा समारोह की डिजाइनिंग, टाइमिंग और प्रस्तुति इस अंदाज में की गई थी, जिसका धार्मिक के साथ साथ राजनीतिक असर भी पड़े। इसमें कोई शक नहीं कि राम मंदिर में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा से देश के बहुसंख्यक हिंदू गदगद हैं तो अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों में आशंकाएं बढ़ी हैं। राम मंदिर का असर यूपी और कुछ उत्तर पश्चिमी राज्यों में हो सकता है। लेकिन दक्षिण में भी वैसी ही लहर चले,जरूरी नहीं है। हालांकि राम मंदिर बनने से मोदी की लोकप्रियता में कई गुना वृद्धि हुई है और दक्षिण में भी उनके प्रति लोगों में उत्सुकता बढ़ी है। यह वोटों में कितनी बदलेगी, यह देखने की बात है। लेकिन ऐसा लगता है कि तमिलनाडु और केरल जहां भाजपा का वजूद नहीं के बराबर है, राम मंदिर मुद्दा पार्टी को चौंकाने वाली सफलता दिला सकता है। दरअसल राम मंदिर उद्घाटन के ठीक छह महीने पहले जिस तरह से तमिलनाडु में सनातन धर्म पर सुविचारित हमला किया गया था, राम मंदिर में रामलला की प्राणप्रर्तिष्ठा उसी का जबर्दस्त जवाब है। सनातन धर्म के नाश का आह्वान करने वाले तमिलनाडु के खेल मंत्री और मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन के बेटे उदयनिधि ने अब यह कहना शुरू कर दिया है कि वो राम मंदिर के खिलाफ नहीं है बल्कि किसी मस्जिद को गिराकर मंदिर बनाने के विरोध में है। यानी राम मंदिर का असर वहां भी हो रहा है।
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पार्टी लाइन से हटकर मोदी की अपनी पर्सनल फालोइंग भी जबर्दस्त है, जो एक दमदार हिंदू नेता की है। वो राम मंदिर के बहाने हिंदू वोटों पर अपनी पकड़ कमजोर शायद ही होने दें। दूसरे यात्री कांग्रेस सांसद राहुल गांधी हैं, जो दो हफ्ते से भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर निकले हैं। वो मोदी पर खुलकर हमले कर रहे हैं और भारत की जनता को सौहार्द और न्याय दिलाने का आश्वासन दे रहे हैं। इस यात्रा की वोटों में तब्दीली कितनी होगी, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि वक्त राहुल को चुनाव के पहले की राजनीतिक लामबंदी में व्यस्त होना चाहिए था, वो न्याय यात्रा में मगन हैं। वैसे भी यह यात्रा जल्दबाजी में निकाली जा रही है। इसका वैसा असर नहीं दिख रहा, जैसा कि पिछली भारत जोड़ो यात्रा का था। हालांकि इस बार राहुल ने अपने जुमले भी बदल दिए हैं। वो अब ‘नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलने’ या फिर अडाणी पर आरोपों से बच रहे हैं। यहां दिलचस्प बात यह है कि राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह और राहुल की भारत जोड़ो यात्रा पार्ट टू का बाह्य स्वरूप जो भी हो, उसका निहित उद्देश्य स्पष्ट रूप से राजनीतिक है। इन्हीं दो अभियानों का मुकाबला भी आगामी लोकसभा चुनावों में होना तय है।
जाहिर है कि अब नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी दोनो के सामने अपने चुनावी रिकार्डों को तोड़ने की बड़ी चुनौती है। मोदी के सामने चुनौती तीसरी बार भाजपा और एनडीए रिकाॅर्ड जीत से सत्ता में लाना तो राहुल के समक्ष चुनौती कांग्रेस को संसद में अधिकृत विपक्ष का दर्जा दिलाने की है। 2019 में कांग्रेस को 52 सीटें मिली थीं। इस बार वह इंडिया गठबंधन के माध्यम से सत्ता प्राप्ति पहुंचने का सपना पाले हुए हैं, लेकिन जिस तरह से गठबंधन में शामिल पार्टियों के बीच जीतने की जिद से ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लड़ने के लिए घमासान मचा है, उससे नहीं लगता गठबंधन डेढ़ सौ सीटों से ज्यादा ला पाएगा। इसका कारण चुनावों लेकर मोदी और भाजपा तथा कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के एप्रोच में भी साफ दिखाई देता है। भाजपा भी राम मंदिर को लेकर मुगालते में है, ऐसा नहीं लगता। वो राम मंदिर जैसे भावनात्मक मुद्दे के अलावा वोट खींचने के दूसरे फार्मूलों पर भी उतनी ही गंभीरता और तेजी से काम कर रहे हैं। उन्हें पता है कि राम ऊपरी तौर पर भले ही हिंदुअों को काफी हद तक एक कर दें, लेकिन जातीय गोलबंदी के मामले में वो ज्यादा मदद नहीं कर पाएंगे। इसीलिए बहुत सुविचारित ढंग से इस बार भारत रत्न अति पिछड़ी जाति से आने वाले बिहार के जननायक कहे जाने वाले कर्पूरी ठाकुर को देने का ऐलान किया गया। इससे बिहार में सत्तारूढ़ जदयू राजद गठबंधन में घमासान तेज हो गया है। माना जा रहा है कि देश में जातिवाद से सर्वाधिक ग्रस्त बिहार में मोदी सरकार के इस फैसले का अति पिछड़ी जातियों में बड़ा संदेश गया है। नीतीश कुमार भी इन्हीं जातियों की राजनीति करते हैं। नीतीश एक बार फिर पलटीमार कर एनडीए के छाते में आ गए हैं।
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ऐसे में बिहार की 40 लोकसभा सीटों पर खेला होना तय है। एनडीए वहां स्वीप भी कर सकता है। उधर बंगाल में ममता और पंजाब में आम आदमी पार्टी तथा कांग्रेस में सीटों की शेयरिंग पर अंतत: बात नहीं बनी तो सब अलग लड़ेंगे और घाटे में कांग्रेस ही रहेगी। जबकि इन राज्यों में भाजपा की ताकत और बढ़ सकती है। आंध्र में भी दिलचस्प स्थिति बन रही है। वहां मुकाबला अब भाई बहनों की अलग-अलग कांग्रेस में होने जा रहा है। लेकिन वहां टीडीपी और भाजपा में समझौता हो गया तो आंध्र में लोकसभा और विधानसभा दोनो के चुनाव नतीजे चौंका सकते हैं।इसी तरह तेलंगाना में भाजपा की ताकत और बढ़ सकती है, वहां कांग्रेस सत्ता में है और बीआरएस तीसरी बड़ी खिलाड़ी है। कर्नाटक में भाजपा और जेडीएस साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। ऐसे में लोकसभा में स्वीप करने की पूरी संभावना है। वहां विधानसभा में कांग्रेस के पक्ष में उभरा ज्वार अब उतार पर है। रामलला का असर वहां भी दिखाई देगा। पश्चिम बंगाल में ममता अलग लड़ी तो टीएमसी और भाजपा ज्यादातर सीटें जीत लेंगे। हिंदी पट्टी और गुजरात में भाजपा का लगभग सभी सीटें जीतना तय सा है। महाराष्ट्र में भाजपा नीत महायुति गठबंधन अधिकांश सीटें जीत सकता है। वहां भी इंडिया गठबंधन में शाब्दिक बयानबाजी से आगे मामला नहीं ब़ढ़ रहा। मतदाता इस खींचतान को भी बारीकी से देख और समझ रहे हैं।
वरिष्ठ संपादक
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