रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज सत्रहवां दिन
Ramcharit Manas: भक्तशिरोमणि पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।
Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 10 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए रोज लेकर आ रहा हैं। हम आपके लिए रोजाना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 10 चौपाई लेकर आ रहे हैँ। उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।
श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ।
आज श्रीरामचरित मानस की 10 चौपाईयां | Today 10 Chaupais of Ramcharit Manas
दोहा
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥
भावार्थ: श्रीतुलसीदासजी कहते हैं कि हे सत्पुरुषों! यदि आप अपने भीतर और बाहर प्रकाश देखना चाहते हों, तो जिह्वारूपी देहरी (मुँह) के द्वार पर राम नाम मणिरूपी दीपक को रख लो।।२१।।
चौपाई
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥1॥
भावार्थ: योगी जीभ से नाम जपकर संसार का वैराग्य से त्यागकर मोहरूपी रात में जागते हैं। जागने से वे समस्त ब्रह्मानन्द का अनुभव करते हैं, जो उपमारहित, अकथनीय, रोगरहित है और जिसका रूप नहीं है।
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥2॥
भावार्थ: इसलिए जो लोग गूढ़ गतियों को जानना चाहते हैं, वे नाम को जिह्वा से ही जपकर उसे जान लेते हैं। देखो, योगादिक क्रियाओं की साधना करनेवाले साधक लौ लगाकर अर्थात् अनवरत परिश्रम से नाम को जपकर अणिमा आदिक सिद्धियों को प्राप्त कर लेते हैं।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥3॥
भावार्थ: अतः जो महान् संकटों में पड़े हों उनको चाहिये कि वे नाम का जप किया करें, इससे समस्त बुरे संकटों से निवृत्त होकर वे सुखी हो जायेंगे। संसार में चार प्रकार के राम-भक्त होते हैं, चारों ही निष्पाप, उदारात्मा और पुण्यशाली कहे जाते हैं।
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥4॥
भावार्थ: किन्तु उन चारों प्रकार के बुद्धिमानों को केवल नाम का ही आधार है, उन चारों में से प्रभु को ज्ञानी ही विशेष प्यारा है। इस प्रकार चारों युगों और चारों वेदों में नाम का ही प्रभाव पाया गया है और कलियुग में तो सिवा इसके दूसरा कोई उपाय ही नहीं है।
दोहा
सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥
भावार्थ: इसके अतिरिक्त जो सांसारिक समस्त कामनाओं से परे श्रीराम-भक्ति के रस में सराबोर हैं, वे भी उसी राम-नाम के सुन्दर प्रेमरूपी तालाब में अपने मन को मछली बनाये रहते हैं।।22।।
चौपाई
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग िनज बस निज बूतें॥1॥
भावार्थ: (अब उसके स्वरूप को देखिये) उस ब्रह्म के निर्गुण और सगुण दो स्वरूप हैं, जो अकथनीय, अगाध, अनादि और अनुपम हैं। परन्तु मेरी राय में नाम इन दोनों से भी बड़ा है; क्योंकि प्रत्येक युगों से यह उस (स्वरूप) को अपने वश में करता चला आ रहा है।
प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥2॥
भावार्थ: इस बात को सभी विद्वान् और सज्जन पुरुष जानते हैं, इसलिये मैं जो कुछ अपनी प्रीति और मन के विश्वास के लिए कह रहा हूँ इसे भी वे जानेंगे, क्योंकि वे सर्वजनों की बात को जाननेवाले होते हैं। इसी प्रकार ब्रह्म-स्वरूप का विचार भी दो प्रकार का होता है, एक प्रत्यक्ष और दूसरा अप्रत्यक्ष, जैसे अग्नि काष्ठ में भी है और प्रत्यक्ष भी है।
उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी॥3॥
भावार्थ: यद्यपि ब्रह्म के दोनों ही स्वरूप अगम हैं तथापि नाम से वे भी सुगम हो जाते हैं, इसलिये कहना पड़ता है कि ब्रह्म और श्रीराम इन दोनों ही से नाम बड़ा है, क्योंकि वह अबिनाशी ब्रह्म एक और आनन्द की राशि होते हुए भी जड़-चैतन्य सबमें समान रूप से व्याप्त है।
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥4॥
भावार्थ: (खेद है कि) हृदय में ऐसे निर्विकारी प्रभु के वास करते हुए भी संसार के समस्त प्राणी दीन और दुखी हैं। उनको चाहिये कि वे यत्नपूर्वक नाम का निरूपण करें अर्थात् नाम की रट लगायें, फिर तो जैसे कसौटी पर कसते ही रत्नों का मूल्य प्रकट हो जाता है, वैसे ही वह (नाम और स्वरूप) भी प्रकट हो जाता है।