रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज दसवां दिन

Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।

Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 12 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आई हैं। आज हम आपके लिए गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 12 चौपाई लेकर आएं हैं। इससे पहले आप लोगों ने नौ दिनों तक रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) पर पढ़ी हैं। आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।

श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ

आज श्रीरामचरित मानस की 12 चौपाईयां | Today 12 Chaupais of Ramcharit Manas

चौपाई
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥1॥

भावार्थ: मणि-माणिक और मुक्ता की जैसी शोभा है-वैसी सर्प, पर्वत और हाथी के मस्तक पर नहीं होती। किन्तु यह सब राजा के मुकुट और तरुणी स्त्री के शरीर पर अधिक शोभा पाते हैं॥1॥

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥2॥

भावार्थ: उसी प्रकार अच्छे कवि और विद्वान् लोग कविता करते तो कहीं पर हैं और वह शोभा किसी दूसरे ही स्थान में पाती है। जब भक्त अपनी कविता के लिए श्रीसरस्वतीजी का स्मरण करता है, तब वह भक्ति के कारण ब्रह्माजी के घर (ब्रह्मलोक) को छोड़कर दौड़ी हुई चली आती हैं।

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥3॥

भावार्थ: तब बिना रामचरित्ररूपी सरोवर में स्नान कराये उनकी वह थकावट करोड़ों उपायों से भी दूर नहीं होती। ऐसा मन में विचारकर कवि और पण्डितजन भगवान् श्रीहरि का गुणानुवाद गाया करते हैं, जो कलि के पापों का हरण करने वाला है॥3॥

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥4॥

भावार्थ: उस समय जब कोई प्राकृत मनुष्य का गुणगान करने लगते हैं, तब सरस्वती सिर धुनकर पछताने लगती हैं। विद्वान् लोग कहते हैं कि बिना सरस्वती की कृपा के कविता की रचना नहीं होती, क्योंकि हृदय समुद्र है, उसमें बुद्धि सीप के समान है और सरस्वती स्वाती नक्षत्र हैं॥4॥

जौं बरषइ बर बारि बिचारू। हो हिं कबित मुकुतामनि चारू॥5॥

भावार्थ: जब सरस्वतीजी श्रेष्ठ विचाररूपी जल की वर्षा करती हैं, तब कवितारूपी सुन्दर मोती उत्पन्न होते हैं॥5॥

दोहा
जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥

भावार्थ: फिर उन मोतियों को पाकर युक्तिरूपी सूई से भेदकर रामचरितरूपी उत्तम तांगे में पोहकर सज्जन अपने निर्मल हृदय में धारण करते और शोभारूपी अति अनुराग को पाते हैं।।11।।

चौपाई
जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥1॥

भावार्थ: कपट कलेवर कलि मल भाँड़े जो मनुष्य भयंकर कलियुग के समय में जन्में है, उनके कर्म कौवे के-से और वेष हंस के समान हैं। वे वेदमार्ग को छोड़कर कुमार्ग में चलते हैं, उनकी कपट की मूर्ति है और वे कलियुग के पापों के पात्र हैं॥1॥

बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरम ध्वज धंधक धोरी॥2॥

भावार्थ: वे ठग लोग श्रीरामजी के भक्त कहलाकर कञ्चन, क्रोध और कामदेव के दास हैं। उनमें से संसार में पहली गिनती मेरी है, ऐसे धर्म की ध्वजा को धारण करनेवाले मुझको धिक्कार है॥2॥

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥3॥

भावार्थ: यदि मैं अपने सब अवगुण कहूँ तो कथा बढ़ जायेगी और पार न पाऊँगा। इसी कारण मैंने बहुत थोड़े में अवगुण कहे हैं, जिसे चतुर लोग थोड़े ही में जान लेंगे॥3॥

समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥4॥

भावार्थ: मेरी अनेक प्रकार की विनती समझकर और कथा सुनकर कोई मुझे दोष नहीं देंगे। परन्तु इतने पर भी जो सन्देह करेंगे, वे मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धिहीन हैं॥4॥

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥5॥

भावार्थ: मैं न तो कवि हूँ, और न चतुर कहलाता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार श्रीरामजी के गुण गाता हूँ। कहाँ रघुनाथजी के अपार चरित्र, कहाँ मेरी मति जो संसार में फँसी हुई है॥5॥

जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥6॥

भावार्थ: जिस प्रबल वायु से मेरु पर्वत उड़ जाता हैं, उसके सामने रुई किस गिनती में है। इस कारण श्रीरामचन्द्रजी की अपार महिमा को समझकर कथा रचते हुए मेरा मन बहुत हिचकता है॥6॥

Deepak Vishwakarma

दीपक विश्वकर्मा एक अनुभवी समाचार संपादक और लेखक हैं, जिनके पास 13 वर्षों का गहरा अनुभव है। उन्होंने पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं में कार्य किया है, जिसमें समाचार लेखन, संपादन और कंटेंट निर्माण प्रमुख हैं। दीपक ने कई प्रमुख मीडिया संस्थानों में काम करते हुए संपादकीय टीमों का नेतृत्व किया और सटीक, निष्पक्ष, और प्रभावशाली खबरें तैयार कीं। वे अपनी लेखनी में समाजिक मुद्दों, राजनीति, और संस्कृति पर गहरी समझ और दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। दीपक का उद्देश्य हमेशा गुणवत्तापूर्ण और प्रामाणिक सामग्री का निर्माण करना रहा है, जिससे लोग सच्ची और सूचनात्मक खबरें प्राप्त कर सकें। वह हमेशा मीडिया की बदलती दुनिया में नई तकनीकों और ट्रेंड्स के साथ अपने काम को बेहतर बनाने के लिए प्रयासरत रहते हैं।

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