रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज बीसवां दिन
Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।
Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 13 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं। पिछले 19 दिनों से रोज हम आपके लिए गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 13 चौपाई लेकर आ रहे हैं। उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।
श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ।
आज श्रीरामचरित मानस की 13 चौपाईयां | Today 13 Chaupais of Ramcharit Manas
दोहा
राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥27॥
भावार्थ: इसलिये इस कलिकालरूपी हिरण्यकशिपु दैत्य का नाश करने के लिये श्रीरामचन्द्रजी का नाम नर-केशरी रूप अर्थात् नरसिंह भगवान् के समान है। उनको प्रहलाद जैसे जापक (जपनेवाले) पुरुष जपकर राक्षसों की सेना का नाशकर फिर रक्षा करते हैं।।27।।
चौपाई
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥1॥॥
भावार्थ: अतः प्रभु का नाम चाहे भाव से, चाहे कुभाव से, चाहे आलस्य से और चाहे ईर्ष्या से ही क्यों न लें, लें, किन्तु नाम का जप दशों दिशाओं में मंगल स्वरूप ही है। सो मैं उसी नाम का स्मरणकर श्रीरामजी को सिर झुकाकर उनके गुणों की गाथा अर्थात् कथा का वर्णन करता हूँ।
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥2॥
भावार्थ: सो मुझे आशा है कि, वे ही मेरी इस रचना का सब प्रकार सुधार करेंगे कि जिनकी कृपा दया करते हुए भी कभी तृप्त नहीं होती। परन्तु इसमें यह एक चिन्ता है कि श्रीरामचन्द्रजी तो मेरे बड़े सुन्दर स्वामी हैं और मैं उनका बड़ा बुरा सेवक हूँ इससे निर्वाह कैसे हो? फिर भी दयानिधि भगवान् ने अपनी ओर निहारकर अर्थात् अपनी श्रेष्ठता के कारण मेरी रक्षा ही की है।
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥3॥
भावार्थ: क्योंकि लोक और वेद में भी अच्छे स्वामी का यह नियम होता है कि वे विनय को सुनकर प्रीति को पहिचान लेते हैं। धनी, गरीब, ग्रामीण तथा नगर के वासी, पण्डित मूर्ख, मलिन और विख्यात एवं।
सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥4॥
भावार्थ: अच्छे और बुरे कवि, अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार राजा की प्रशंसा करते हैं। राजा, साधु तथा सुन्दर बुद्धिवाले सुशील होते हैं, राजा में परम कृपालु भगवान् का अंश रहता है।
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥5॥
भावार्थ: इसी कारण वह सर्वसाधारण कही हुई भक्ति, मति और सुन्दर गति को पहचानकर सबका आदर करते हैं। यह तो प्राकृत राजाओं का स्वभाव है और मेरे कोसलराज महराज भगवान् श्रीरामचन्द्रजी तो राजाओं में भी शिरोमणि और महाज्ञानी हैं।
रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥6॥
भावार्थ: वे श्रीरामचन्द्रजी तो स्नेह करते ही रीझ जाते हैं, पर मुझसे बढ़कर इस संसार में मलिन और मन्द बुद्धिवाला कौन है? (जो उनसे प्रेम नहीं करता)।
दोहा
सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥28 क॥
भावार्थ: परन्तु मुझे आशा है कि इस मूर्ख दास की प्रीति और इच्छा को श्रीरामचन्द्रजी अवश्य रखेंगे; क्योंकि उन्होंने पत्थर की नाव बनाकर रीछ और बन्दरों को अपना सुबुद्ध मन्त्री बनाया था।।28(क)।।
हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥28 ख॥
भावार्थ: मुझसे सब लोग कहते हैं कि तुलसीदास ! तुम सीतानाथ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के दास हो, सो मैं समझता हूँ कि मुझ दास से श्रीरामजी की निन्दा होती है और उनको उपहास सहना पड़ता है; क्योंकि कहाँ तो श्रीरामजी जैसा साहब और कहाँ इस तुलसीदास-जैसा सेवक, तब मेल कैसे हो सकता है?।।28(ख) ।।
चौपाई
अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥1॥
भावार्थ: जब मुझमें इतना दोष है कि, मैं बार-बार ढिठाई ही करता हूँ, जिसे सुनकर नरक भी नाक-भौं सिकोड़ेगा अर्थात् जिससे नरक भी घृणा करेगा। जिसे कभी एकान्त में बैठकर समझता हूँ तो अपनी करनी का मुझे अपने आप ही भय लगता है, परंतु उसका श्रीरामचन्द्रजी ने स्वप्न में भी ख्याल नहीं किया।
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥2॥
भावार्थ: क्योंकि यदि ख्याल किए होते, अथवा देख और सुनकर स्थिर चित्त से कहीं विचार किये होते, तो मेरी कहीं भी गुजर न होती, लेकिन स्वामी श्रीरामचन्द्रजी ने तो मेरी मति और भक्ति की प्रशंसा ही की। यह बात अथवा यह प्रेम कहने योग्य नहीं; क्योंकि अच्छी बात कहने-सुनने से नष्ट हो जाती है। हाँ। यह निश्चित सिद्धान्त है कि श्रीरामचन्द्रजी अपने भक्त के हृदय की बात को जानकर रीझते हैं।
रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली॥3॥
भावार्थ: उन प्रभु के चित्त में भक्त की उस चूक का कोई ख्याल नहीं रहता जो कदाचित् हो जाया करती है, वह सौ बार उसके अच्छे स्वभाव का ही ख्याल करते हैं। नहीं तो जिस पाप के कारण उन्होंने एक ब्याघ के समान बालि को मार डाला और वही कुचाल फिर सुग्रीव ने की।
सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहूँ सो न राम हियँ हेरी॥
ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥4॥
भावार्थ: वही करतूत विभीषण ने की थी कि उसने मन्दोद्री को रख लिया था; किन्तु दयालु भगवान् श्रीरामचन्द्रजी ने स्वप्न में भी उसके इस दोष को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया। अपितु भरतजी से भेंट करते समय राज-सभा में श्रीरामचन्द्रजी ने विभीषण के गुणों का बखान ही किया।
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