रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज अठाइसवां दिन
Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।
Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 14 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) पिछले 27 दिन से आपके लिए लेकर आ रहा हैं। हम आपके लिए रोजाना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 14 चौपाई लेकर आते रहे हैं। उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।
श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ।
आज श्रीरामचरित मानस की 14 चौपाईयां | Today 14 Chaupais of Ramcharit Manas
दोहा
पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥37॥
भावार्थ: इस प्रकार जो राम चरित मानस की उपरोक्त फुलवारियाँ बाग और वन हैं, उसमें अच्छे- अच्छे सुन्दर विहंग तोता, मैंना, चातक आदि रंग-बिरंगे पक्षी सुखपूर्वक विहार (आनन्द) कर रहे हैं और उसमें सुन्दर मनरूपी माली अपने नेत्रों से स्नेहरूपी जल भर-भरकर सींच रहा है।।37।।
चौपाई
जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥1॥
भावार्थ: जो लोग इस चरित्र को सँभालकर गाते हैं, वे ही इस तालाब के बुद्धिमान् रक्षक हैं और चाहे स्त्री हो या पुरुष, जो इसे सर्वदा सुनता है, वही देवताओं के समान इस मानस का श्रेष्ठ अधिकारी होता है।
अति खल जे बिषई बग कागा। एहि सर निकट न जाहिं अभागा॥
संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥2॥
भावार्थ: परन्तु जो महादुष्ट और विषयी पुरुष कौवे तथा बगुले के समान हैं, वे अभागे इस तालाब के निकट नहीं जाते; क्योंकि वे तो विषय-वासनाओं के इच्छुक रहते हैं और इसमें विषय-सम्बन्धी उनके लिये कथा नहीं है।
तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
आवत ऐहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥3॥
भावार्थ: इस कारण उन कौवे ओर बगुले रूप विचारे कामियों का हृदय यहाँ आते हुए थक जाता है। क्योंकि इस सरोवर के निकट तक आना बहुत कठिन कार्य है, बिना श्रीरामचन्द्रजी की कृपा से आया नहीं जाता।
कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥4॥
भावार्थ: क्योंकि वे कुसंग में रहनेवाले हैं और उनका वह बुरा मार्ग उन्हें खा जानेवाला है, इस कारण उनकी बातें ऐसी होती हैं मानो वे व्याघ्र, सिंह और साँप के समान काट खायेंगी। दूसरे उनके लिए गृहस्थी के कार्य ही जंजाल के रूप में बड़े-बड़े दुर्गम पर्वत से हो जाते हैं, तब भला उनको समय कहाँ है?।
बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥5॥
भावार्थ: मोह, मद और अभिमान सम्बन्धी अनेक दुर्गम वन उनके मार्ग में आते हैं और वे कुतर्कनाओं की भयङ्कर नदी में बह जाते हैं।
दोहा
जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥
भावार्थ: अतः जो श्रद्धा-भक्ति से रहित हैं और जिनका सत्पुरुषों से कभी साथ नहीं पड़ा है और जिनको श्रीरामजी प्रिय नहीं हैं, उनके लिये तो यह मानस अत्यन्त ही अगम है।।38।।
चौपाई
जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई॥
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥1॥
भावार्थ: यदि कभी कोई कष्ट करके वहाँ चले भी जाते हैं, तो जाते ही उन्हें निद्रारूपी जूड़ी आ जाती है। जड़तारूपी जाड़ा लगने लगता है और वे इस सरोवर में बिना स्नान और जल-पान किये ही वहाँ से चल देते हैं।
करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥2॥
भावार्थ: इस प्रकार उनसे उस सरोवर में स्नान-पान करते नहीं बनता और वे अभिमान सहित लौट आते हैं। यदि कोई फिर आकर उनसे पूछता है कि, कहो भाई! सरोवर में स्नान तो करने गये थे, कैसा रहा? तब वे अपने दोष को न प्रकटकर सरोवर की निन्दा ही कह सुनाते हैं।
सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥3॥
भावार्थ: परन्तु श्रीरामचन्द्रजी जिसकी ओर कृपादृष्टि करके देख देते हैं, उसको समस्त विघ्नों में कोई भी विघ्न नहीं व्यापता। फिर तो वह प्रेमपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है तथा दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों तापों से वह कभी नहीं जलता।
ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥4॥
भावार्थ: फिर तो वे पुरुष, जिनकी श्रीरामचन्द्रजी के चरित्र में उत्तम भावनाएँ होती हैं, वे इस सरोवर को कभी नहीं त्यागते । अतः जो पुरुष इस सरोवर में स्नान करना चाहते हों उनको चाहिये कि वे मन लगाकर सत्संग अर्थात् सत्पुरुषों का साथ करें।
अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥
भावार्थ: ऐसा यह मानस है कि आन्तरिक प्रेम से एवं हृदय के नेत्रों से देखकर और इसमें स्नान करके कवि की बुद्धि निर्मल हो गयी। फिर तो उसके हृदय में आनन्द की ऐसी लहर उठी कि वह उस प्रेमानन्द की धारा में बह चला।
चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरित सो।
सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥6॥
भावार्थ: फिर तो उसके लिए यह कवितारूपी नदी श्रीरामचन्द्रजी के पवित्र यशरूपी जल से सर्वदा भर गयी। ऐसी कवितारूपी नदी का नाम ‘सरयू’ नदी है, जो समस्त सुमंगलों की मूल है और लोक तथा वेदरूपी उसके दो तट हैं।
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥7॥
भावार्थ: मानस से निकली हुई यह पवित्र कवितारूपी नदी किनारे पर स्थित कलिकाल के जितने पापरूप वृक्ष आयेंगे, वह सबको जड़-मूल से उखाड़कर फेंक देगी।