रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज चौतीसवां दिन हैं

Ramcharit Manas: रामाधीन परमपूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।

Ramcharit Manas: रामाधीन परमपूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 10 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रहा हैं। हम रोजाना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 10 चौपाई लेकर आ रहे हैं । वही उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।

श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ

आज श्रीरामचरित मानस की 10 चौपाईयां | Today 10 Chaupais of Ramcharit Manas

दोहा
अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥

भावार्थ: इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी का चरित्र अत्यन्त विचित्र है, जिसको अच्छे जानकार (अनुभवी) ही जानते हैं, वे क्या जानेंगे जो मोहपाश में बँधे हुए हैं और जो हृदय में और ही कुछ धारण किये रहते हैं।।49।।

चौपाई
संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥

भावार्थ: उसी समय श्रीमहादेवजी ने श्रीरामचन्द्र को नेत्र भरकर देख लिया, परन्तु देखते ही उनके हृदय में ऐसा अधिक क्षोभ उत्पन्न हुआ कि वे एकटक उन सौन्दर्य (शोभा) के समुद्र को देखने लगे और कुसमय जानकर जान-पहिचान नहीं की।

जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥

भावार्थ: और ‘हे जगत् के पवित्र करनेवाले ! सच्चिदानन्द ! आप की जय हो’ ऐसा कहते हुए कामदेव को भस्म करनेवाले श्रीशिवजी चल दिये। इस प्रकार कृपा के धाम श्रीशिवजी अपने मन में बार- बार प्रसन्न होते हुए श्रीसतीजी को साथ लिये चले जा रहे थे।

सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥

भावार्थ: उनकी उस दशा को देखकर सतीजी के मन में भी विशेष रूप से संदेह उत्पन्न हो गया। सन्देह यह कि श्रीशंकरजी तो जगत्-पूज्य और सारे जगत् के ईश्वर हैं, जिनको देवता, साधारण मनुष्य और मुनि लोग भी सिर झुकाते हैं।

तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥

भावार्थ: वे शंकरजी एक राजा के लड़के को सच्चिदानन्द और परमधाम कहकर प्रणाम किये हैं। और उस की शोभा को देखकर ऐसे मग्न हैं कि अब तक भी वह प्रीति इनके हृदय में अबाधरूप से चल रही है और रोके भी नहीं रुकती है।

दोहा
ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥

भावार्थ: इस प्रकार श्रीसतीजी अपने मन में सोचती हैं कि भला जो ब्रह्म सब में व्यापक, अजन्मा, माया-रहित, कला-रहित, अनीह, भेद-रहित साक्षात् ईश्वर हैं; जिन्हें वेद भी नहीं जानते, क्या वे शरीर धारणकर मनुष्यरूप में आयेंगे? ।।५०।।

चौपाई
बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥

भावार्थ: यदि ऐसा हो भी तो वे भगवान् विष्णु, जिन्होंने देवताओं के लिये शरीर धारण किया है; और जो शंकर के समान ही सर्वज्ञता का पद लिए हुए आये हैं, क्या वे एक मूर्ख मनुष्य के समान स्त्री को ढूँढ़ते फिर रहे हैं, क्योंकि लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु तो राक्षसों के शत्रु और ज्ञान के धाम हैं।

संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥

भावार्थ: फिर शंकरजी की ऊपर कही ‘जय सच्चिदानंद जग पावन’ वाणी भी मिथ्या नहीं हो सकती; क्योंकि शिवजी सर्वज्ञ हैं, यह सब कोई जानते हैं। सतीजी के मन में ऐसा अपार संशय उत्पन्न हुआ कि उनके हृदय में किसी प्रकार भी सुन्दर बुद्धि का प्रसार नहीं हो पाता था।

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥

भावार्थ: तब यद्यपि सतीजी ने उस शंका को प्रकट नहीं किया, तो भी अन्तर्यामी भगवान् शंकरजी सब कुछ जान गये और बोले- हे सती ! सुनो, ‘तुम्हारा स्त्री का स्वभाव है, ऐसी शंका हृदय में कभी न लाओ’। क्योंकि-

जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥

भावार्थ: जिनकी कथा अगस्त्यजी ने गाकर सुनायी है और जिनकी भक्ति को मैंने उन मुनि (अगस्त्यजी) को सुनाया, ये वही रघुकुलशिरोमणि श्रीरामचन्द्रजी मेरे इष्ट देवता हैं, जिनकी मुनिजन सर्वदा ही धैर्यपूर्वक सेवा करते हैं।

 

Deepak Vishwakarma

दीपक विश्वकर्मा एक अनुभवी समाचार संपादक और लेखक हैं, जिनके पास 13 वर्षों का गहरा अनुभव है। उन्होंने पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं में कार्य किया है, जिसमें समाचार लेखन, संपादन और कंटेंट निर्माण प्रमुख हैं। दीपक ने कई प्रमुख मीडिया संस्थानों में काम करते हुए संपादकीय टीमों का नेतृत्व किया और सटीक, निष्पक्ष, और प्रभावशाली खबरें तैयार कीं। वे अपनी लेखनी में समाजिक मुद्दों, राजनीति, और संस्कृति पर गहरी समझ और दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। दीपक का उद्देश्य हमेशा गुणवत्तापूर्ण और प्रामाणिक सामग्री का निर्माण करना रहा है, जिससे लोग सच्ची और सूचनात्मक खबरें प्राप्त कर सकें। वह हमेशा मीडिया की बदलती दुनिया में नई तकनीकों और ट्रेंड्स के साथ अपने काम को बेहतर बनाने के लिए प्रयासरत रहते हैं।

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