रामचरित मानस की चौपाईयां अर्थ सहित पढ़ें रोज, आज पैतीसवां दिन हैं
Ramcharit Manas: गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रही हैं।
Ramcharit Manas: रामाधीन परमपूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 11 चौपाई अर्थ सहित उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) आपके लिए लेकर आ रहा हैं। हम रोजाना गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ की 11 चौपाई लेकर आ रहे हैं । वही उज्जवल प्रदेश (ujjwalpradesh.com) एक नई पहल कर रही हैं जिसके माध्यम से आप सभी को संपूर्ण ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़ने का लाभ मिलें।
श्रीरामचरित मानस (Shri Ramcharit Manas) में जिनके पाठ से मनुष्य जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। वैसे तो संपूर्ण रामायण का पाठ करने से हर तरह की मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाती है, आप चाहे तो हमारे साथ जुड़कर रोजाना पाठ करें और संपूर्ण रामायण का पुण्य फल भी कमाएं। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ रामायण के प्रथम सोपान बालकांड के दोहा और चौपाई और भावार्थ।
आज श्रीरामचरित मानस की 11 चौपाईयां | Today 11 Chaupais of Ramcharit Manas
छंद
मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
भावार्थ: जिनका धैर्यधारी मुनि, योगी, सिद्धजन और सन्तजन अपने पवित्र अन्तःकरण में स्मरण किया करते हैं, ध्यान करते हैं और ‘अन्त नहीं’ ऐसा कहकर वेद और पुराण जिसका यशोगान करते हैं। वही अपनी माया के धनी, सर्वव्यापक, निराकारस्वरूप ब्रह्म श्रीरामचन्द्रजी चौदहों भुवन के स्वामी हैं, उन्हीं रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजी ने अपने भक्तों का हित करने के लिए स्वतन्त्र होते हुए भी अवतार धारण किया है।
सोरठा
लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥
भावार्थ: इस प्रकार यद्यपि शिवजी ने अनेक बार कहा, पर वह उपदेश सतीजी के हृदय में न बैठा। तब भगवान् की माया का ऐसा ही बल है-यह मन में जानकर श्रीमहादेवजी हँसकर बोले ।।५१।।
चौपाई
जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥
भावार्थ: यदि तुम्हारे मन में अधिक सन्देह हो तो जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती हो? तब तक मैं इस वट वृक्ष की छाँह में बैठा रहूँगा, जब तक तुम मेरे पास न आओगी।
जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥
भावार्थ: जिस प्रकार तुम्हारी यह बड़ी शंका दूर हो, ज्ञान सहित वही उपाय करो। तब शिवजी की आज्ञा पाकर सतीजी वहाँ से चलीं तो मन में विचार करने लगीं कि, हे भाई! क्या करूँ?
इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥
भावार्थ: उधर शंकरजी अपने मन में ऐसा अनुमान करने लगे कि दक्षसुता सती का कल्याण नहीं होगा। क्योंकि जब मेरे कहने से भी इनका भ्रम दूर न हुआ तब विधाता ही उलटा हो गया है, फिर इनकी भलाई कैसे होगी?
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥
भावार्थ: होगा तो वही जो रामजी ने रच रखा है, इससे उसमें बहुत तर्क-वितर्क करके शाखा कौन बढ़ाये? ऐसा कहकर शंकरजी फिर भगवान हरि का नाम जपने लगे, उधर श्रीसतीजी वहाँ जा पहुंचीं, जहाँ सुखों के घर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी थे।
दोहा
पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥
भावार्थ: तब बार-बार अपने मन में विचारकर उन्होंने सीताजी का रूप धारण किया और उसी मार्ग से चलीं, जिस मार्ग से राजा श्रीरामचन्द्रजी आ रहे थे।।५२।।
चौपाई
लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥
भावार्थ: तब ज्योंही श्रीलक्ष्मणजी ने श्रीसतीजी के उस बनावटी वेष को देखा, त्योंही उनका हृदय अत्यन्त भ्रम से चकित हो गया। किंतु वे अत्यन्त गंभीर होकर कुछ कह न सके; क्योंकि वे मतिधीर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के प्रभाव को अच्छी तरह जानते थे।
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥
भावार्थ: किंतु देवताओं के स्वामी (श्रीरामचन्द्रजी) सती के उस कपट को (जो उनके हृदय में पहले ही उत्पन्न हो चुका था और जिस कारण श्रीमहादेवजी ने परीक्षा लेने को भेजा था) जान गये; क्योंकि वे सर्वदर्शी और सबके मन की बात को जाननेवाले अन्तर्यामी हैं।
सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥
भावार्थ: परन्तु सतीजी ने वहाँ भी छिपाव किया, देखो स्त्री के स्वभाव का कैसा प्रभाव हुआ। तब अपनी माया शक्ति को हृदय में बखानकर श्रीरामचन्द्रजी हँसकर मीठी वाणी से बोले।
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥
भावार्थ: प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने हाथ जोड़कर उनको प्रणाम किया और अपने पिता महाराज दशरथ सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि श्रीमहादेवजी कहाँ हैं? आप अकेली इस वन में किस प्रयोजन से घूम रही हैं?