इस्तीफा मांगना और उसे न देना नई राजनीतिक नैतिकता…!

अजय बोकिल
आजादी के अमृत वर्ष में भारतीय राजनीतिक नैतिकता का लुब्बो लुआब यह है कि अब देश में लापरवाही और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सत्ताधीशों से इस्तीफा मांगना और उसे किसी कीमत पर न देना एक सर्वमान्य रिवाज बन चुका है। वैसे लापरवाही और भ्रष्टाचार सगे सम्बन्धी भले न हो, लेकिन दोनो में चचेरा रिश्ता तो है ही। दोनो एक दूसरे के पूरक हैं। फर्क इतना है कि भ्रष्टाचार का सियासी डीजे Ajay Bokilकानफोड़ू ढंग से बजता है तो लापरवाही की पुंगी जांच, निलंबन आदि की नक्कारखाने में दब कर रह जाती है।

ताजा दो मामले इसी नई नैतिकता के बुरे उदाहरण हैं। अोडिशा के बालासोर जिले के पालनपुर स्टेशन पर सुरक्षा के तमाम दावों के बावजूद तीने ट्रेंने किसी वीडियो गेम की माफिक भयानक ढंग से टकरा गई और करीब पौने तीन सौ बेकसूर यात्रियों की जानें गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही चली गईं। लगभग एक हजार घायलों का इलाज अस्पतालों में चल रहा है। इस देश में ट्रेनें पटरी से उतरती रही हैं, यदा कदा दो ट्रेनों की टक्कर भी हुई है, लेकिन तीन ट्रेने आपस में भिड़ जाएं, यह देख पूरी दुनिया हैरान है। इस हादसे के बाद भी जैसा‍ कि होता है कि मं‍‍त्रियों-अफसरों के दौरे हुए। मुआवजा वगैरह घोषित हुआ। अलबत्ता एक अलग बात यह हुई कि पहली बार किसी ऐसे हादसे में कोई प्रधानमंत्री सांत्वना देने पहुंचा।

पीएम मोदी घटनास्थ पर पहुंचे और उन्होंने कहा कि इस भयंकर हादसे के लिए दोषी किसी को नहीं बख्शा जाएगा। इस हादसे में भी मरने वाले अधिकांश लोग गरीब थे, जो रोजी रोटी के लिए अपने घर से दूर किसी दूसरे शहर या गांव के लिए निकले थे। उधर रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव ने पहले कहा कि हादसे के पीछे तकनीकी खामी है। बाद में उनको लगा ‍कि इसके पीछे कोई साजिश हो सकती है, लिहाजा मामले की सीबीआई जांच होनी चाहिए। यानी रेलवे को अभी भी यह समझ नहीं आ रहा है कि यह मुआ हादसा हुआ क्योंकर? प्रधानमंत्री की परेशानी भी समझी जा सकती है, जब वो लगातार ‘वंदे भारत’ ट्रेनों को हरी झंडी दिखाकर आधुनिक रेलवे की नई रंगत का अहसास करवा रहे हैं, तब रेलवे ने हादसों का अपना पुराना इतिहास क्यों दोहराया? वह भी इतना भीषण?

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इसी के समांतर मामला बिहार का है, जहां भागलपुर जिले में गंगा नदी पर आठ सालों से बन रहा पुल दूसरी बार ढह गया। मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने आला अफसरों को जांच के आदेश दिए। राजद नेता और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने अजीब तर्क दिया कि पुल का कुछ हिस्सा पहले ही गिरा था, सो हमने पूरा ढहा दिया ताकि नया बनाया जा सके। इस पुल के ढहने से 1717 करोड़ रू. भी पानी में बह गए। नीतीश ने अफसरों से पूछा कि यह पुल अब तक क्यों नहीं बना। बन जाना चाहिए था। यानी मैं तब भी सीएम था, अब भी हूं। अब उन्हें यह कौन समझाए कि बार बार ‍िगरने वाला पुल पूरा कैसे बन सकता है। वैसे भी नीतीश इन दिनो विपक्ष को एकजुट करने में लगे हैं, ऐसी छोटी बातों के लिए उनके पास वक्त कहां? लेकिन दूसरी तरफ बालासोर रेल हादसे में रेल मंत्री से इस्तीफा जरूर मांगा।
ऐसा नहीं है कि इस देश में पहले रेल हादसे नहीं हुए। एक दलील तो अंग्रेजों के जमाने की रेल दुर्घटना की भी दी गई, जिसमें आठ सौ से ज्यादा लोग रेल हादसे में नदी में डूब कर मर गए थे।

मौका देखकर सोशल मीडिया में बालासोर हादसे को साम्प्रदायिक तड़का देने की कोशिश भी हुई, जिसका अोडीशा पुलिस ने दृढ़ता से खंडन किया। वैसे भी गंगा जैसी विशाल और पवित्र नदी पर तथा उसमें भी बिहार पुल बनाना चुनौती भरा रहा है। क्योंकि गंगा का पात्र बहुत बड़ा और धार तेज होती है। बिहार में गंगा नदी पर करीब आधा दर्जन बड़े पुल हैं। अगुवानी से सुल्तानगंज तक इस पुल का निर्माण 2014 से चल रहा था। पिछले साल भी तेज हवा और आंधी से इस पुल का एक हिस्सा ढह गया था। यानी यह पुल दूसरी बार गिरा है। मजे की बात यह है कि नीतीश सरकार अब यह कह रही है चूंकि इस पुल की ‍िडजाइन ही गलत थी और इसके निर्माण में गड़बड़ी थी, इसलिए वह गिरा नहीं, गिराया जा रहा है। यह बात तो कोई अनाड़ी भी समझेगा कि यदि किसी पुल या इमारत को गिराया जाता है तो उसकी सूचना आम लोगों को पहले से दी जाती है। गंगा पर बना यह पुल जिस तरह वीडियो में ध्वस्त होता हुआ दिख रहा है, उसके पीछे केवल भ्रष्टाचार का डाइनामाइट ही है। इसे समझने के लिए किसी यांत्रिक ज्ञान की गरज नहीं है।

अब बात राजनीतिक नैतिकता की। बालासोर रेल हादसे के बाद अपेक्षानुरूप विपक्ष ने रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव से इस्तीफा मांगा। नैतिकता के पुराने हवाले दिए गए ( यह बात अलग है कि किसी भी रेल मंत्री के इस्तीफे से रेल व्यवस्था में क्रांितकारी सुधार हुआ, याद नहीं पड़ता)। रेल नेटवर्क के विस्तार के उलट रेल सुविधाअों और रियायतों में और कमी हो गई। अत्यधिक दबाव के बीच रेल का आंतरिक तंत्र भी कमजोर होता गया है। कांग्रेस अध्यिक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का तो आरोप है कि मोदी सरकार में रेल मंत्रालय का महत्व घटाने की वजह से ऐसा हो रहा है। वैसे विपक्ष के आरोपों का तोड़ मोदी सरकार ने इसका तोड़ वंदे भारत ट्रेन के रूप में पेश किया, लेकिन बालासोर हादसे ने फिर रेलवे और सरकार को आत्मावलोकन पर विवश कर दिया है। पहले रेल मंत्री ने दावा‍ किया था कि हादसे के असली कारण की पहचान कर ली गई है। दुर्घटना प्वाइंट मशीन और इंटरलाॅकिंग इंटरफीयरेंस के कारण हुई। लेकिन दूसरे ही दिन उन्होंने मामले की सीबीआई जांच की जरूरत बताई। सरकार को शक है कि तकनीकी गड़बड़ी के पीछे कोई साजिश भी हो सकती है। एक कारण साफ है कि रेल ट्राफिक नियंत्रण व्यवस्था में भारी ढिलाई और लापरवाही है। इस बदहवासी के बीच ताजा खबर यह है कि अोडिशा में एक और मालगाड़ी पटरी से उतर गई है।

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उधर बिहार में नीतीश कुमार ने बालासोर रेलवे हादसे पर तो रेल मंत्री का इस्तीफा मांग लिया, लेकिन अपने ही राज्य 1717 करोड़ का पुल और वो भी दूसरी बार ढहने पर भाजपा द्वारा उनसे इस्तीफा मांगने की बात को टाल गए। नीतीश की गठबंधन सरकार में शामिल कांग्रेस के एक नेता धर्मेन्द्र कुमार ने भी पुल ढहने की जांच सीबीआई से कराने की मांग कर दी। कुल मिलाकर तस्वीर यूं बनी है कि अोडीशा में रेल हादसा होने पर कांग्रेस और जदयू रेल मंत्री से इस्तीफा मांगते हैं और ‍िबहार में पुल हादसा होने पर भाजपा नीतीश से इस्तीफा मांगने लगती है। लेकिन इनमें से कोई भी ‘आत्मग्लानि’ महसूस कर अथवा नैतिक आधार पर इस्तीफा देना तो दूर, ऐसा सोचने की गलती भी नहीं कर रहा। इससे भी टेढ़ा सवाल यह है कि अपराधों आर्थिक घोटालों की जांच करने वाली सीबीआई तकनीकी गड़बड़ीी की जांच कैसे करेगी? क्या वह रेलवे के इलेक्ट्राॅिनक सिस्टम को हिरासत में लेगी या ध्वस्त हो चुके गंगा पुल पर रेड डालेगी? अगर यह हादसा किसी आतंकी साजिश का हिस्सा है तो जांच एनआईए जैसी एजेंसियों को करनी चाहिए।

जमीनी हकीकत यह है कि हम कितने ही आधुनिक होने और प्रौद्योगिकी विकास की बातें करें, हमारी मूल मानसिकता वही है। हादसों की जांचें पहले भी होती आई हैं, लेकिन किसी मामले में बड़ी मछली तड़पती दिखी हो, ऐसा शायद ही हुआ है। ज्यादातर जांच रिपोर्टें तब आती हैं, जब तक नए हादसे की जमीन तैयार हो चुकी होती है। और जिम्मेदारी तय होने के नाम पर वो बेचारे छोटे मुलाजिम नपते हैं, जिन्होंने बड़ों के दबाव में भ्रष्टाचार को आजीविका की गारंटी माना हुआ होता है। बालासोर हादसे में भी किसी व्यक्ति की जिम्मेदारी तय होगी, इसकी संभावना कम ही है। यांत्रिक गड़बड़ी में लापरवाही का केस बनेगा। आपरेटर टाइप के लोग निपट जाएंगे और रेल गाडि़यां भी करप्शन की पटरी पर नई रिस्क के साथ दौड़ने लगेंगी। वही हाल गंगा पुल का भी होगा। गंगा मैया ने ही शायद भ्रष्टाचार के इस पुल को बनने नहीं दिया होगा। लेकिन उसकी भी एक सीमा है। इस देश मे भ्रष्टाचार अब महासागर की तरह हिलोरें ले रहा है। गंगा पर पुल हो या रेल की पटरियां सब की नियति वही है। ऐसे किसी से इस्तीफा मांग लेना महज एक राजनीतिक कर्मकांड है, जो साल में कई बार दोहराया जाता है, यह जानते हुए भी कि कहीं कोई इस्तीफा देने वाला नहीं है और कभी भूले भटके दे भी ‍दिया तो उसकी भी बड़ी कीमत मांगेगा।

वरिष्ठ संपादक
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