अतीक हत्याकांड: यह पत्रकारों के प्रति समाज और तंत्र के विश्वास का भी एनकाउंटर है
इस घटना में बड़ा निहित संदेश यह है कि पत्रकारिता अब और ज्यादा जोखिम भरी हो गई है क्योंकि तीनो हमलावर युवक टीवी पत्रकारों के भेस में वहां पहुंचे थे और किसी को उनके ‘फर्जी’ होने का शक नहीं हुआ और न ही कोई उनके असली इरादे भांप सका।
अजय बोकिल
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में 15 अप्रैल की आधी रात से कुछ पहले एक अस्पताल परिसर में जिस तरह तीन युवकों ने दो माफिया को बेखौफ गोली मारकर खत्म कर दिया, उससे राज्य की पुलिस के इकबाल पर तो सवालिया निशान लगा ही है, लेकिन इस घटना में बड़ा निहित संदेश यह है कि पत्रकारिता अब और ज्यादा जोखिम भरी हो गई है। क्योंकि तीनों हमलावर युवक टीवी पत्रकारों के भेस में वहां पहुंचे थे और किसी को उनके ‘फर्जी’ होने का शक नहीं हुआ और न ही कोई उनके असली इरादे भांप सका।
यहां उस घटनाक्रम को ‘लाइव’ कवर कर रहे टीवी पत्रकारों और कैमरामैनों की तारीफ की जानी चाहिए कि उस हत्याकांड का लाइव कवरेज करते हुए न तो उनके हाथ कांपे और न ही कैमरामैनों की आंख लक्ष्य से डिगी। यह अपनी ड्यूटी जान की बाजी लगाकर पूरा करने का भी नायाब नमूना है।
युद्ध, उपद्रव और प्राकृतिक आपदा के मामलों में ऐसा कभी-कभी होता है, लेकिन प्रयागराज की घटना के कवरेज में निहत्थे पत्रकारों ने गजब का नैतिक साहस दिखाया।
यूं तो आज पत्रकारिता में भी कई काली भेड़े आ गई हैं। वहां भी फर्जी पत्रकार आ गए हैं, समाचार की जगह एजेंडा पत्रकारिता ने ले ली है, कई पत्रकार ब्लैकमेलिंग के धंधे में भी हैं तो कुछ पत्रकारिता के आवरण में दलाली का कारोबार भी बखूबी कर रहे हैं। कुछ सोशल मीडिया और टीवी चैनलों के जरिए फेक न्यूज के रॉकेट भी छोड़ते रहते हैं, बावजूद इन सबके सच्ची, साहसिक और अनुकरणीय पत्रकारिता करने वाले खत्म नहीं हुए हैं। पत्रकारिता की आत्मा को तिलांजलि नहीं मिली है। जो डटे हैं, सो डटे हैं।
प्रयागराज के काल्विन अस्पताल में मेडिकल के लिए ले जाने के पहले उमेश पाल हत्याकांड के आरोपी और माफिया डाॅन अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ अहमद की मीडिया से चर्चा के दौरान ही जिस दुस्साहस के साथ गोलियां मारी गईं, उसके पीछे के मास्टर माइंड और गेम प्लान के खुलासे अभी होने हैं। जो हुआ, वो कोई साधारण ‘मर्डर’ का मामला नहीं है।
उन आपराधिक प्रवृत्ति के तीन युवाओं का दिमाग इतना तेज शायद ही हो कि वो पत्रकारिता को भी हत्या करने का कामयाब जरिया मान लें। कामयाब इसलिए क्योंकि अपराध की दृष्टि से तीनों युवकों का प्लान पूरी तरह सटीक और सफल रहा। दुस्साहस देखिए कि जो काम कोई पुलिस वाले की मौजूदगी में शायद डर डर करे, वो काम उन युवकों ने डेढ़ दर्जन हथियारबंद पुलिस वालों के होते हुए कर डाला।
इन सबके पीछे कोई बड़ी ताकत है। जीते जी दर्जनों लोगों को ठिकाने लगाने वाले दोनो माफिया, उनसे ज्यादा शातिर युवा गैंग्सटरों के आगे बेबस दिखे और चालू कैमरों के आगे ही ढेर हो गए।
हत्याकांड- उठ रहे हैं कई सवाल
भारी पुलिस की मौजूदगी में यह हत्याएं कई सवाल खड़े करती हैं। पहला तो यह तीनो युवक फर्जी टीवी पत्रकार बनकर पत्रकारों के बीच कैसे घुस गए? दूसरा, जब तीनों ने तीन दिशाओं से अतीक और अशरफ पर गोलियां दागना शुरू की तो वहां मौजूद किसी भी पुलिस वाले ने उनमें से एक को भी मार गिराने की कोशिश क्यों नहीं की? क्या पुलिस को ऐसा कुछ हो सकने का पहले से अंदाजा था या बिल्कुल भी अंदेशा नहीं था?
अगर तीनो युवक तीन दिन से अतीक और अशरफ को मारने का प्लान बना रहे तो पुलिस का खुफिया तंत्र क्या कर रहा था? इसके जवाब में एक तर्क यह दिया जा रहा है कि इस देश में पहले भी सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी में बड़ी राजनीतिक हत्याएं हुई हैं। यह आंशिक रूप से सही है। लेकिन जिनकी हत्याएं हुई, वो न्यायिक हिरासत में नहीं थे। उन हत्याओं में तो उनके सुरक्षाकर्मियों ने ही विश्वासघात किया था।
यहां ज्युडिशियल कस्टडी का मतलब यह था कि पुलिस पर दोनो को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी थी। इस हिसाब से इस घटनाक्रम में कोर्ट में जवाब देना पुलिस के लिए मुश्किल हो सकता है। यहां बात माफियाओं से सहानुभूति की नहीं, पेशेवर दायित्व की है।
पुलिस के रिएक्शन पर भी प्रश्नचिन्ह
पुलिस ने तत्काल रिएक्ट क्यों नहीं किया, इस संदर्भ में दलील यह आई है कि चूंकि गोली सामने से भी चली थी, ऐसे में अगर पुलिस जवाबी कार्रवाई करती तो गोली सामने मौजूद पत्रकारों को भी लग सकती थी। दुर्भाग्य से ऐसा होता तो पुलिस के लिए और भी मुश्किल हो जाती। उस पर माफिया के साथ साथ पत्रकारों के एनकाउंटर का आरोप भी लगाया जाता।
लेकिन अभी यह सवाल काल्पनिक है। पत्रकार जान को जोखिम में डालकर अपना काम करते हैं, लोगों तक सूचनाएं पहुंचाते हैं। आत्मरक्षा के लिए उनके पास नैतिक साहस और पेशेवर जुनून के अलावा कुछ नहीं होता। प्रयागराज की घटना कवर करने वाले पत्रकार भी घटना कवर कर चुकने के बाद रातभर सो नहीं पाए होंगे। क्योंकि पटाखों की तरह पिस्तौल से चलती गोलियां और सामने टपकती लाशों का ऐसा भयंकर और दिल दहला देने वाला लाइव कवरेज तो युद्ध में भी कभी कभार देखने को मिलता है।
लेकिन लगता है कि यह पेशेवर निष्ठा और पत्रकारों की रही सही साख भी अब जोखिम के दायरे में है। इसलिए, क्योंकि अब पत्रकारों को एक दूसरे पर पूरा भरोसा करने के पहले सोचना होगा कि जो बगल में चैनल का माइक अथवा कैमरा लेकर खड़ा है, वह सचमुच पत्रकार है भी या नहीं? यह आत्म संशय की अनचाही और अवांछित स्थिति है।
मीडिया पर कैसे होगा भरोसा?
दूसरी तरफ पुलिस व सुरक्षाकर्मी भी पत्रकारों की टीम पर पूरी तरह भरोसा शायद ही करें।
यूं तो कई पत्रकारो के गले में आईकार्ड डले होते हैं, लेकिन किसी के मन में क्या चल रहा है, इसका कोई आइडेंटिटी कार्ड नहीं होता। यानी दूसरे तो ठीक खुद पत्रकार ही दूसरे पत्रकार पर कितना भरोसा करें, उसे कितना अपनी बिरादरी का माने, माने या नहीं, अब यह सवाल पैदा हो गया है। साथ ही पत्रकार और सुरक्षाकर्मी कितने ही तेज क्यों न हों, ‘माइंड रीडर’ यकीनन नहीं होते।
अतीक और अशरफ को मारने वाले तीनो युवकों ने पत्रकारों के प्रति समाज और तंत्र के विश्वास को भी गोली मार दी है, यह अपने आप में बहुत बड़ा नुकसान है। क्योंकि पत्रकार ‘हत्यारे’ भी हो सकते हैं, इसे तो कोई नहीं मानता था। यही माना जाता रहा है कि वो ज्यादा से ज्यादा खबरों की गोलियां दाग सकते हैं। कुछेक पत्रकारों पर व्यक्तियों की ‘चरित्र हत्या’ के आरोप जरूर लगे हैं, लेकिन पत्रकार बनकर वास्तव में ‘मानव हत्या’ की दुष्ट कोशिश अभी तक शायद ही किसी ने की हो।
बहुतों का मानना है कि तीनो युवकों ने दुर्दांत माफिया को खत्म कर एक तरह से समाज पर एहसान ही किया है, उसका क्या रंज मनाना। हो सकता है, यह सोच सही भी हो। लेकिन गोली किस नीयत और भाव से चलाई गई है, यह भी उतना ही मायने रखती है। वो तीनो युवक हत्यारों की तरह प्रकट होकर हत्या कर के चले जाते तो इसे कानून व्यवस्था का प्रश्न और सरकार की मंशा का सवाल ही माना जाता, लेकिन उन्होंने पत्रकार बनकर यह कृत्य किया, यह समूची पत्रकारिता को आहत करने वाली बात है।
फिलहाल मानकर चलें कि पत्रकारिता और समाज के रिश्तों यह हत्याकांड दरार नहीं बनेगा।
वरिष्ठ संपादक
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