भारत जोड़ो यात्रा: राहुल गांधी की असल चुनौती तो सियासी यात्रा को पूरा करने की है
राहुल गांधी की कन्याकुमारी से कश्मीर तक चली ‘भारत जोड़ो यात्रा’ सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गई। अब बड़ा सवाल यह कि राहुल आगे क्या करेंगे? चार माह में बढ़ी उनकी बेतरतीब दाढ़ी उन्हें ‘तपस्वी’ के किरदार में ही रखेगी या राहुल फिर से पूर्ववत क्लीन शेव्ड होकर खुद को व्यावहारिक राजनीति का कुशल खिलाड़ी सिद्ध करना चाहेंगे?
अजय बोकिल
कांग्रेस नेता राहुल गांधी की कन्याकुमारी से कश्मीर तक चली ‘भारत जोड़ो यात्रा’ सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गई। छुटपुट विवादों को दरकिनार करें तो 136 दिन चली यह पैदल यात्रा देश में एक संदेश देने में कामयाब रही। सबसे बड़ी उपलब्धि राहुल की ‘पप्पू छवि’ में आमूल बदलाव है। यह कह सकते हैं कि राहुल के व्यक्तित्व, सोच और एप्रोच में यह परिवर्तन उन्हें भविष्य में विपक्ष के सबसे बड़े और सर्वाधिक स्वीकार्य नेता के रूप में स्थापित कर सकता है।
इस मायने में यात्रा अपने एक लक्ष्य को पाने में काफी हद तक सफल रही। लेकिन राहुल और कांग्रेस पार्टी के सामने चुनौती का अगला चरण ज्यादा कठिन है, जिसमें राहुल को एक संकल्पित यात्री से कहीं आगे स्वयं को एक जिम्मेदार, संजीदा और दबंग नेता के रूप में प्रस्तुत और सिद्ध करने का है।
राहुल यात्रा का नेतृत्व करने के बाद मुश्किल राजनीतिक चुनौती का सामना करने और बड़ा दायित्व संभालने के लिए तैयार हैं या नहीं, इस पर सारे देश की नजर है। यही नहीं, राहुल देश की वर्तमान राजनीति को बदल पाएंगे या नहीं? बदलेंगे तो कैसे? उनके और कांग्रेस पार्टी के पास इसका क्या रोड मैप है? है भी या नहीं?
वैसे गैर भाजपा दलों में 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर हड़बड़ाहट और चिंता है। बावजूद तमाम दिक्कतों और परेशानियों के संकेत यही हैं कि मोदी के नेतृत्व में भाजपानीत एनडीए फिर सत्ता में लौटेगी, क्योंकि विपक्ष के पास कोई ठोस विकल्प नहीं है। वह एकजुट भी नहीं है और देश की जनता तीसरे मोर्चे की सरकार जैसा निरर्थक प्रयोग करने का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं है।
पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा और आरएसएस ने कट्टर हिंदुत्व और विकास का कार्ड खेलकर उत्तर और पश्चिम भारत में ऐसी मजबूत पकड़ बना ली है कि उसे हिलाने का कोई ठोस उपाय विपक्षी दलों को नहीं सूझ रहा है। राज्यों के विधानसभा चुनाव में दूसरे दलों ने कुछ कामयाबियां हासिल की हैं, लेकिन देश की सत्ता पर फिर से काबिज होने का सपना अभी भी दूर की कौड़ी ही है।
दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आलोचना को भी अपनी ताकत बनाकर खुद का कद इतना ऊंचा कर लिया है कि बाकी सारे लोग उसके आगे बौने लगने लगे हैं।
राहुल बनाम भाजपा-मोदी
ऐसे में राहुल गांधी ने मोदी और भाजपा की सत्ता को खुलेआम चुनौती देने का साहस दिखाया है। यह मामूली बात नहीं है। लेकिन जब तक ये साहस राजनीतिक सफलता में तब्दील नहीं होता, तब तक यह व्यक्तिगत उपलब्धि के रूप में ही इतिहास में दर्ज होगा। कांग्रेस ने राहुल को आगे रखकर 12 राज्यों और 2 केन्द्र शासित प्रदेशों से होकर 3970 किमी तक देश को पैदल नापने की यात्रा निकाली। करीब सौ सहयात्री भी उनके साथ चले।
राहुल ने कहा कि इस यात्रा के बहाने वो नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलना चाहते हैं। दुकान कोई सी भी हो, कारोबार खरीद-फरोख्त का ही करती है। राजनीति की दुकान में सपने बेचकर वोट खरीदे जाते हैं। उसकी व्याख्या भले ही किसी रूप में की जाए। अपनी यात्रा के दौरान राहुल बीच बीच में मोदी और आरएसएस पर भी हमले करते रहे। उनकी इस यात्रा में कुछ विपक्षी दलों ने कुछ समय चहलकदमी की। यही नहीं जिस आरएसएस पर राहुल हमले करते रहे, उसने भी राहुल पर कोई प्रतिवार नहीं किया। उल्टे राम जन्मभूमि विहिप नेता और राज जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के महासचिव चम्पत राय ने राहुल की यात्रा की तारीफ ही की।
राहुल आगे क्या करेंगे?
समूची यात्रा के दौरान राहुल और सहयात्रियों को भारत सरकार ने सुरक्षा उपलब्ध कराई। यात्रा पूरी होने पर भाजपा ने उसकी व्याख्या इस रूप में की कि अगर राहुल इस तरह शांतिपूर्वक यात्रा निकाल सकते हैं तो भारत और खासकर आंतक से ग्रस्त रहे जम्मू कश्मीर में मोदी राज में कानून व्यवस्था कितनी बेहतर हुई है। यह सही है कि राहुल यूपीए के शासनकाल में इस तरह खुली छाती से श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने का साहस शायद ही जुटा पाते।
इसका सीधा मतलब यह है कि भाजपा और अन्य दल भी राहुल की इस यात्रा पर रिएक्ट करने के बजाए उसके सियासी पासवर्ड को डीकोड करने में जुटे हैं। उसके दूरगामी नफे नुकसान का आकलन कर रहे हैं।
अब बड़ा सवाल यह कि राहुल आगे क्या करेंगे? चार माह में बढ़ी उनकी बेतरतीब दाढ़ी उन्हें ‘तपस्वी’ के किरदार में ही रखेगी या राहुल फिर से पूर्ववत क्लीन शेव्ड होकर खुद को व्यावहारिक राजनीति का कुशल खिलाड़ी सिद्ध करना चाहेंगे? सत्ता के कुरुक्षेत्र में वो कृष्ण की तरह सारथी और सलाहकार की भूमिका में रहेंगे या फिर अर्जुन की तरह स्वयं गांडीव संभालेंगे? बेशक उनकी इतनी लंबी पैदल यात्रा एक सामाजिक-आध्यात्मिक पुण्य कर्म हो सकती है, लेकिन राजनीति की बाधा दौड़ में खुद ही बाधाओं को पार कर गोल्ड मेडल हासिल करना पड़ता है।
यात्रा के दौरान राहुल कई विवादित मुद्दों पर स्पष्ट कहने से बचते रहे, लेकिन हकीकत में उन्हें ऐसे मामलों में अपनी राय रखनी पड़ेगी। उन्होंने बार-बार कहा कि वो नफरत और विभाजन की सियासत के खिलाफ अलख जगाने निकले हैं, लेकिन वोटों की शतरंज में वो सदभाव की शह से बाजी कैसे जीतेंगे, यह देखने की बात है।
भाजपा की राजनीति में सेंध लगाने की कोशिश
उधर भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति में सेंध लगाने के लिए मंडल को जिंदा करने की सुनियोजित कोशिश शुरू हो गई है। कहने को यह सामाजिक न्याय के रेपर में है, लेकिन बेहद भौंडे तरीके से। महाकवि तुलसी के ‘रामचरित मानस’ की कुछ पंक्तियों की अपनी सुविधा से व्याख्या और इस राम महाकाव्य की प्रतियां सार्वजनिक रूप से जलाकर ये मंडलवादी सिद्ध क्या करना चाहते हैं?
क्या इससे घर-घर में होने वाला मानस पाठ बंद हो जाएगा? इस मुद्दे पर तुलसी के पक्ष में कई वैचारिक हस्तक्षेप हो रहे हैं, तुलसी की चौपाइयों की नए सिरे से व्याख्या भी हो रही है, लेकिन मुद्दा तुलसी की पंक्तियों में निहित भावना की व्याख्या का है नहीं। तुलसी की आड़ में एक बवाल खड़ा कर हिंदू एकता की संघ छतरी में छेद करने की सुनियोजित कोशिश है।
इसी रणनीति के तहत यह मुद्दा अकारण ही बिहार के एक मंत्री चंद्रशेखर ने उठाया और बाद में उसे समाजवादी पार्टी के नेता और खुद को ‘गेमचेंजर’ समझने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य ने हवा दी। स्वामी के बयान से पहले खुद समाजवादी पार्टी भी सकते में थी, लेकिन जब स्वामी ने इस फूहड़ बयान में छिपे राजनीतिक फायदों को सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को समझाया तो वो भी समर्थन में खड़े हो गए।
इससे ओबीसी सियासत करने वाले दलों को कितना फायदा होगा, कहना मुश्किल है, क्योंकि मंडल से अपेक्षित सामाजिक न्याय का एक चक्र पहले ही पूरा हो चुका है। लेकिन लगता है कि कुछ विपक्षी दलों को भाजपा को हराने के लिए इससे कारगर तरीका नहीं सूझ रहा है। तुलसी ही क्यों, राजनीतिक स्वार्थ के लिए किसी भी रचनाकार को कभी भी कटघरे में खड़ा किया जा सकता है। कल को कुछ प्रदेश यह कहकर राष्ट्रगान को खारिज कर सकते हैं कि इसमें उनका नाम है ही नहीं, इसलिए टैगोर और राष्ट्रगान पर प्रतिबंध लगाया जाए। विपक्षी दल यह मान बैठे हैं कि विभाजन की काट प्रति विभाजन ही है।
क्या राहुल पूर्णकालिक राजनेता होंगे?
इससे यह भी पता चलता है कि अब राजनीति किस दिशा में आगे बढ़ने वाली है। राहुल इसमें स्वयं और कांग्रेस की नैया को कैसे आगे ले जाते हैं, यह देखने की बात है। जाहिर है कि राष्ट्रीय फलक से भी पहले लोग यह जांचेंगे कि राहुल कांग्रेस को एक एकजुट और जुझारू फौज के रूप में कैसे तब्दील करते हैं। वो पूर्णकालिक राजनेता होंगे या नहीं? वो समय पर सही निर्णय लेकर उसे क्रियान्वित करा सकने का दम रखने वाले नेता साबित होंगे या नहीं? वो बहुआयामी चुनौतियों से खुद दो-चार होंगे या फिर सदिच्छा भाव से किनारे रहकर उपदेश देते रहेंगे?
राहुल की यह यात्रा भारत को जोड़े रखने के सद्भाव से निकाली गई थी। लेकिन यथार्थ के कैनवास पर देश को जोड़े रखने के लिए कई स्तरों पर राजनीतिक उद्यम करने होते हैं। राहुल उसके लिए तैयार हैं या नहीं, यह अभी स्पष्ट नहीं है। अगर वो एक जिम्मेदार राजनेता की भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं तो 2029 के आम चुनावों में राहुल और कांग्रेस के लिए संभावनाएं बन सकती हैं। फिलहाल उनकी इस यात्रा से किंकर्तव्यविमूढ़ लग रही कांग्रेस में कुछ जान आई है।
पार्टी कार्यकर्ताओं को राहुल में एक बड़ा नेता दिखने लगा है। अलबत्ता देश में सत्ता की राजनीति जिस गर्त में जा पहुंची है, राहुल उसे थोड़ा भी बाहर निकाल सके तो यह बड़ी बात होगी।
वरिष्ठ संपादक
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