मानहानि मामला: ‘सहानुभूति’ को सियासी जीत में बदल पाएंगे राहुल गांधी?
राहुल गांधी की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि बोलते समय वो राजनीतिक लाभ-हानि और उसके समग्र परिणामों के बारे में ज्यादा नहीं सोचते। उन्हें यह अहसास नहीं रहता कि कब और कैसे बोलने का क्या असर होगा? भाषा की समस्या तो उनके साथ है ही। वो अंग्रेजी में सोचकर हिंदी में बोलते हैं, जिससे अक्सर अर्थ का अनर्थ होता है।
अजय बोकिल
जिस तरह से मानहानि मामले में कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ सूरत की अदालत का फैसला आया, जिस तरह फैसला आते ही ताबड़तोड़ तरीके से राहुल की लोकसभा सदस्यता खत्म की गई और जिस तरह भाजपा ने राहुल गांधी पर हमले तेज कर दिए हैं, उससे इतना तो साफ है कि मोदी सरकार और भाजपा राहुल गांधी को अब संभावित खतरा मानने लगी है। वरना कुछ समय पहले तक बीजेपी राहुल को ‘पप्पू’ मानकर केवल उनका मजाक उड़ाने तक सीमित थी।
उधर राहुल और कांग्रेस इस पूरे घटनाक्रम को ‘राजनीतिक बदले’ का रंग देकर उनके संसद सदस्यता गंवाने को ‘शहादत’ का रूप देने की कोशिश कर रहे हैं। वे निचली अदालत के फैसले के खिलाफ ऊपरी कोर्ट में जाने की जल्दबाजी भी नहीं दिखा रहे हैं। कांग्रेसियों का मानना है कि इन तमाम घटनाओं से राहुल के प्रति जन सहानुभूति बढ़ेगी और इसका लाभ कांग्रेस और परोक्षत: विपक्ष को मिलेगा।
इसका सीधा मतलब यही है कि अगला लोकसभा चुनाव फिर से मोदी बनाम राहुल में तब्दील हो सकता है, हालांकि ऐसा माहौल 2014 में भी बनाया गया था, जिसमें राहुल बुरी तरह नाकाम रहे थे। वही माहौल फिर से बने, इसकी पहली कसौटी यह है कि राहुल अपने काम, बयानों और संगठन क्षमता को लेकर कितने गंभीर हैं।
जनता नेता को केवल सदस्यता के आधार पर ही नहीं तौलती है। वह जोखिम उठाने का साहस, कर्मनिष्ठा, संकल्पशक्ति और निर्णय क्षमता के कारकों पर भी नेता को देखती और परखती है। इन पैमानों पर राहुल अभी भी बहुत संजीदा नजर नहीं आते। जबकि उनके पास (अगले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर) समय ज्यादा नहीं बचा है।
‘भारत जोड़ो यात्रा’ से राहुल को लाभ
इसमें दो राय नहीं कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने राहुल की छवि को बेहतर बनाया है। यही कारण है कि राहुल की यात्रा को निर्द्वद्वं सम्पन्न होने देने वाली मोदी सरकार और भाजपा इस यात्रा के दूरगामी परिणामों का सूक्ष्मता से विश्लेषण कर अपनी अगली रणनीति पर काम कर रही है। चार महीने चली यात्रा के दौरान राहुल गांधी अमूमन विवादित बयानों से बचते रहे। एक दो बार मामला गड़बड़ाया भी तो वरिष्ठ सहयोगियों ने किसी तरह उसे संभाल लिया।
उसके बाद ब्रिटेन की यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने भारतीय लोकतंत्र और मोदी सरकार पर जो टिप्पणियां की, संसद में अडानी को लेकर मोदी पर जो प्रहार किए, उससे सरकार, भाजपा और संघ के कान खड़े हो गए हैं। इन बयानों के बाद राहुल की नीयत पर सवाल उठाए जाने लगे। विदेश में भारत के आंतरिक मसलों पर राहुल की प्रतिक्रिया को उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता के रूप में देखा गया। बहुतों का मानना है कि घर के अंदर लड़ाई लड़ने वाले राहुल को ऐसे मामलों में संयत होकर अपनी बात रखनी थी।
राहुल के बयानों को मुद्दा बनाते हुए भाजपा ने उनसे संसद में माफी मांगने को लेकर संसद नहीं चलने दी। ऐसा शायद पहली बार हुआ कि सत्ता पक्ष ही, संसद नहीं चलने दे रहा था। भाजपा, राहुल को संसद में बोलने नहीं दे रही थी। दूसरी तरफ राहुल ने भी अपने बयानों के लिए माफी मांगने से इंकार कर दिया। हालांकि वो स्पष्टीकरण देने के लिए तैयार थे। लेकिन इस स्पष्टीकरण में भी वो ऐसी कुछ बातें कर सकते थे, जो मोदी सरकार को असहज कर सकती थीं।
दूरगामी परिणाम सोचने में राहुल, मोदी से 19
राहुल गांधी की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि बोलते समय वो राजनीतिक लाभ-हानि और उसके समग्र परिणामों के बारे में ज्यादा नहीं सोचते। उन्हें यह अहसास नहीं रहता कि कब और कैसे बोलने का क्या असर होगा? भाषा की समस्या तो उनके साथ है ही। वो अंग्रेजी में सोचकर हिंदी में बोलते हैं, जिससे अक्सर अर्थ का अनर्थ होता है। हिंदी पर अधिकार न होना राहुल गांधी की ऐसी मूलभूत कमजोरी है, जिसकी वजह से उन्हें आगे भी नुकसान उठाना पड़ेगा।
उनके विपरीत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजराती भाषी होने के बाद भी हिंदी के मुहावरे को इतनी गहराई से आत्मसात कर लिया है कि उनकी बात देश के 70 फीसदी लोगों को आसानी से समझ आ जाती है।
राहुल सच में विपक्ष का सक्षम चेहरा बनना चाहते हैं तो उन्हें इस बात को भी समझना होगा कि राजनीति, राजनीतिक तौर तरीके से ही हो सकती है, होनी चाहिए। क्योंकि राजनीति का अंतिम सत्य सत्ता की प्राप्ति है न कि सत्यान्वेषण अथवा मोक्ष प्राप्ति।
सियासत अमूमन अर्द्धसत्य पर ज्यादा चलती है। जिसमें विचार, घटना और परसेप्शन की अपने अनुकूल व्याख्या की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। यह एक चतुराई भरा, शातिराना खेल है जो भद्रता का आवरण ओढ़ कर भी खेला जाता है, खेला जा सकता है। राजनीति में आप जो कहते हैं, जो कटाक्ष या व्याख्या करते हैं, वह तोता रटंत नहीं है, उसकी अपनी दृष्टि और सोच है, इस बात का अहसास नेता को बार-बार दिलाना पड़ता है।
कई लोगों का मानना है कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद राहुल गांधी की छवि उदारवादियों की नजर में भी सुधरी है, लेकिन यह बदलाव उन्हें देश के शीर्ष नेता के रूप में स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। राहुल अभी भी वो गलतियां करते जा रहे हैं, जो पहले भी कर चुके हैं। गलती सभी से होती है, लेकिन समझदार इंसान और राजनेता गलतियों को दोहराने से यथा संभव बचता है। भले ही वो नई गलती करे।
यह भी विडंबना है कि यूपीए 2 के समय मनमोहन सिंह सरकार द्वारा लाए गए उस अध्यादेश को राहुल सिंह ने सरेआम फाड़ दिया था और जिसके कानून बनने पर वो खुद आज मानहानि की सजा से बच सकते थे। लेकिन तब राहुल ने उस अध्यादेश को भ्रष्टाचारियों को बचाने वाला बताकर उसे फाड़ा था। उनके इस कृत्य से कांग्रेस को कोई फायदा नहीं हुआ, उलटे खुद मनमोहन सरकार ही भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में घिर गई तथा अपनी ही सरकार के कामों के प्रति राहुल की अगंभीरता की गलत छवि बनी।
इससे केवल इतना संदेश गया कि राहुल एक जिद्दी नेता हैं और उन्हें जब जो ठीक लगता है कह और कर बैठते हैं। अब भी इस मानसिकता में कोई खास फर्क आया हो, ऐसा नहीं लगता। बीते आठ साल में उन्हें तीन बार अपने बयानों के लिए या तो माफी मांगनी पड़ी या फिर उसके लिए सफाइयां देनी पड़ी।
सावरकर पर बयानों का असर
हिंदुत्ववादी वी.डी.सावरकर को लेकर राहुल के बयान ने विपक्षी एकता को दरका दिया। महा विकास आघाडी में शामिल शिवसेना ने साफ कह दिया कि सावरकर उनके आराध्य हैं तो राष्ट्रवादी कांग्रेस ने कहा कि सावरकर के खिलाफ वो कुछ नहीं सुनेंगे। बाद में तय हुआ कि राहुल सावरकर पर मौन ही रहेंगे, लेकिन ऐसा कब तक रहेगा, यह स्पष्ट नहीं है। अगर सावरकर का ब्रिटिश सरकार से माफी मांगकर छूटना ही उनकी आलोचना का एक मात्र आधार है तो कहा जाता है कि उन्होंने ऐसा पांच बार किया। लेकिन राहुल तो तीन अलग-अलग मामलों माफी पहले ही मांग चुके हैं।
कहीं ऐसा न हो कि वो इस मामले में सावरकर से आगे निकल जाएं। इन सबके बाद भी जब उन्होंने कहा कि ‘मैं सावरकर नहीं, जो माफी नहीं मांगूंगा’ तो सवाल उठा कि राहुल खुद की तुलना सावरकर से किस आधार पर कर रहे हैं। उन्होंने 52 साल में ऐसा क्या किया है, जो देश उन्हें अपना नेता माने। सावरकर तो 14 साल अंडमान की सेल्युलर जेल में रहे, लेकिन राहुल के पास संघर्ष का ऐसा जरा भी अनुभव नहीं है। जहां तक कांग्रेस की बात है तो उसने सावरकर के मामले में महाराष्ट्र की जनभावना का हमेशा ध्यान रखा।
राहुल की दादी इंदिरा गांदी ने 1970 में सावरकर पर डाक टिकट भी जारी किया था। इसका कारण यह है कि भले ही सावरकर हिंदुत्व की विचारधारा के प्रणेता हों, भले ही वो माफीनामा देकर काले पानी की सजा से छूटे हों, लेकिन महाराष्ट्र के अधिसंख्यक लोग उनकी देशभक्ति और राष्ट्रनिष्ठा को असंदिग्ध मानते हैं।
इस मायने में वो एक बड़े आइकन हैं। राहुल इस बात को जाने समझे बगैर टिप्पणियां करेंगे तो विपक्षी एकता का महल कभी ठीक से खड़ा नहीं होगा। दूसरे, कांग्रेस में संगठनात्मक सुधार करने, उसे जुझारू बनाने और सत्ता की ललक पैदा करने के लिए जो करना जरूरी है, उस मोर्चे पर राहुल अभी भी कुछ ठोस कर रहे हैं, ऐसा प्रतीत नहीं होता। खुद मैदान में खेलना और बाहर बैठकर कोचिंग करने में जमीन आसमान का फर्क है।
बावजूद इसके एक बात राहुल के पक्ष में जाती दिखती है और वो ये कि वो मोदी सरकार, भाजपा और संघ पर प्रहार करने की हिम्मत दिखा रहे हैं। खुद को प्रताड़ित के रूप में पेश कर रहे हैं, जिससे उन्हें लोगों की सहानुभूति मिल सकती है। हालांकि इस खतरे से भाजपा अनजान होगी, यह मानना गलत होगा। लेकिन ‘विक्टिमाइजेशन’ को अपने और अपने दल के राजनीतिक पक्ष में मोड़ने की कला भी राजनेता में होनी चाहिए। यानी सहानुभूति वोटों में भी तब्दील हो, इसकी कूवत चाहिए।
उदाहरण के लिए राहुल की दादी (और शायद अब तक की सबसे सफल तथा साहसी प्रधानमंत्री) इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के बाद उन्हें राजनीतिक रूप से खत्म करने की जनता सरकार की चाल को इसी विक्टिम कार्ड से नाकाम कर दिया था और वो 1980 में फिर नई ताकत के साथ सत्ता कर काबिज हो गईं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो उन पर होने वाले हर निजी हमले को अपनी ताकत बनाने की कला में माहिर हैं। क्योंकि राहुल खुद को कितना ही मूल्यनिष्ठ, ईमानदार बताने की कोशिश करें, उनकी इस ताकत का वो कांग्रेस कोई राजनीतिक फायदा नहीं दिला पाए तो उसका कोई खास मतलब नहीं है।
ज्यादा से ज्यादा वो उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि हो सकती है। राजनीतिक दृष्टि से कोई गुणात्मक बदलाव राहुल में हुआ है, ऐसा अभी तो नहीं लगता। इसके बगैर अगले चुनाव में मोदी और भाजपा को हराना बहुत ही मुश्किल है।
वरिष्ठ संपादक
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