मोदी के ‘चार सौ पार’ के दावे में गुंथे सियासी प्रबंधन के तार..!

अब सवाल यह है कि क्या भाजपा को लोकसभा चुनाव में इसका लाभ वोटों के रूप में मिलेगा, इसका जवाब पाने के लिए हमे नतीजों का इंतजार करना होगा। इसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि भारत रत्न पुरस्कारों में निहित राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूर्ववर्ती अनुभवों में बहुत ज्यादा फलित होती नहीं दिखी है।

अजय बोकिल
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के उत्तर में संसद में आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा द्वारा अपने दम पर 370 और एनडीए द्वारा 4 सौ के पार सीटें जीतने का जो दावा किया गया था, उसका आधार मोदी सरकार द्वारा भारत रत्न सम्मानों की झड़ी तथा विपक्षी तथा दूसरे दलों को अपनी छतरी में लाने के अभियान से समझा जा सकता है। वैसे प्रधानमंत्री ने जो दावा कर रहे हैं, वह जमीन पर कितना उतरेगा, यह तो चुनाव नतीजे ही बताएंगे, लेकिन उसे साकार करने की दिशा में स्वयं प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी भाजपा जिस तरह जमीन आसमान एक किए दे रही है, उससे लगता है कि यह सच हो भी सकता है। भले ही चुनाव पूर्व किए जा रहे ओपीनियन पोल के नतीजे अभी इस दावे को दूर की कौड़ी ही बता रहे हों।

बहरहाल, भाजपा की चार सौ पार की यह रणनीति कई स्तरों पर नजर आती है और साम-दाम-दंड-भेद से प्रेरित है। नैतिक आधार पर इसकी आलोचना हो सकती है, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर वह सफल होती दिखती है। यूं भी राजनीति मूलत: सत्ता का खेल है और कुर्सी ही इसका अंतिम साध्य है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह इसे बखूबी समझते हैं। इसीलिए दो कदम आगे बढ़ने के लिए एक कदम पीछे हटने में भी उन्हें गुरेज नहीं है।

आज क्या हासिल होगा, यही उनका प्राथमिक लक्ष्य है। कल क्या होगा, भावी इतिहास इसका आकलन किस रूप में करेगा, नीति शास्त्र में उसे कहां जगह मिलेगी, नियम-कानूनो की लक्ष्मण रेखाओं की सुविधाजनक व्याख्या कैसे की जाएगी, आज लोकतंत्र की आधारभूत संस्थाओं के हाथ किसे सेल्यूट कर रहे हैं, जैसे सवाल आगे भी उठेंगे लेकिन मोदी राजनीति शास्त्र में इन सवालों की चिंता किए बगैर बहुतांश की जनाकांक्षा को किस भाव से पढ़ा जाए और उसे किस तरह अपने पक्ष में मोड़ा जाए, यह हिकमत ही नया पॉलिटिकल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस है। और मोदी इस प्रौद्योगिकी के मास्टर हैं।

इसी बाजीगरी को इस साल घोषित पांच भारत रत्नों में बूझने की कोशिश मोदी के आलोचक कर रहे हैं। हालांकि, भारत रत्न जैसा सर्वोच्च पुरस्कार जाति, धर्म, समुदाय और क्षेत्रीय दुराग्रहों से परे है और देश की असाधारण सेवा के लिए दिया जाता है। लेकिन इस बार दिए गए पांचो भारत रत्नों में जाति और भौगोलिक क्षेत्र के महीन समीकरण साधने का भाव भी निहित है। भले ही घोषित तौर पर यहा कहा जाए कि हमने वैचारिक मतभेदों के परे जाकर भारत रत्न पुरस्कार दिए हैं। लेकिन न साधकर भी बहुत कुछ साधने की सियासी कारीगरी इसमें साफ झलकती है।

अब सवाल यह है कि क्या भाजपा को लोकसभा चुनाव में इसका लाभ वोटों के रूप में मिलेगा, इसका जवाब पाने के लिए हमे नतीजों का इंतजार करना होगा। इसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि भारत रत्न पुरस्कारों में निहित राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूर्ववर्ती अनुभवों में बहुत ज्यादा फलित होती नहीं दिखी है। इसका कारण शायद यह भी है कि पहले के कर्णधारों ने भारत रत्नों के जरिए राजनीतिक हित साधने की झीनी कोशिश जरूर की थी, लेकिन वह उतनी शिद्दत से नहीं थी, जैसी कि इस बार दिखती है। दूसरे, जो पुरस्कार दिए गए हैं या और भी दिए जा सकते हैं, वो ठीक चुनाव के मुहाने पर हैं।

लिहाजा इसका कुछ न कुछ असर होने की पूरी संभावना है, जिसका फायदा भाजपा और एनडीए को किसी न किसी रूप में होगा। तीसरे, विचार और आग्रहों के स्तर पर जैसी जबर्दस्त गोलबंदी ऊपर से नीचे तक अब दिखाई दे रही है या करने की कोशिश की जा रही है, वैसी एक दशक पहले तक नहीं थी। जिस होशियारी से ये भारत रत्न दिए गए हैं, उसकी आलोचना मोदी विरोधी भी खुलकर नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि इसमें खतरा यह है कि अगर यह दांव चल गया तो आने वाले समय में किसी भी प्रधानमंत्री को ‘भारत रत्न लो और वोट दो’ की नीति पर ही काम करना होगा। इसकी शुरूआत हो भी चुकी है।

मायावती ने दलितों के नेता कांशीराम और शिवसेना ने बाला साहब ठाकरे को भारत रत्न देने की मांग कर दी है। इनके नामो की घोषणा हो भी सकती है बशर्ते ये सब एनडीए के शामियाने में अपना राजनीतिक स्टॉल लगा लें। दूसरे शब्दों में कहें तो अब किसी विशिष्ट क्षेत्र में अन्यतम योगदान के जरिए देश सेवा के लिए भारत रत्न देकर राष्ट्रीय कृतज्ञता जताने का दौर धुंधला चुका है। यह असंभव नहीं कि भारत रत्न अब जातीय/ सामुदायिक अथवा क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व या फिर राजनीतिक लामबंदी की योग्यता के आधार पर ही दिए जाने लगें।

इसमें शक नहीं कि लोकसभा चुनाव में चार सौ पार का आंकड़ा हासिल करने के लिए भाजपा अपना एनडीए कुनबा बढ़ाने की हर संभव कोशिश कर रही है। पहले जदयू का लौटना, अब रालोद का एनडीए में शामिल होना, पंजाब में अकाली दल को लौटाने की कवायद इसी का हिस्सा है। उधर दक्षिण में पी.वी. नरसिंहराव को भारत रत्न देने का स्वागत पूर्व सत्तारूढ़ रही भारत राष्ट्र समिति के अ्ध्यक्ष केसीआर ने किया है। केसीआर की पार्टी ने तीन साल पहले पी.वी. नरसिंहराव की जन्मशती धूमधाम से मनाई थी और उन्हें ‘तेलंगाना का गौरव’ और ‘भारतमाता का परम प्रिय पुत्र’ कहा था। तब कांग्रेस खामोश ही रही थी।

हालांकि, अब नरसिंहराव को भारत रत्न देने की घोषणा के बाद कांग्रेस यह कह रही है कि उन्हें प्रधानमंत्री तो हमने ही बनाया था। पी.वी. नरसिंहराव अविभाजित आंध्र के मुख्यमंत्री थे। ऐसे में आंध्र में भी इसका कुछ तो संदेश गया ही है। खासकर तब कि जब भाजपा और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी फिर साथ आने की बात चल रही है। इसी तरह वर्तमान संदर्भों में महान कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन को भारत रत्न देना विज्ञान प्रतिभा के सम्मान से ज्यादा तमिलनाडु की जनता को राजनीतिक संदेश देना ज्यादा है। हालांकि वहां की द्रविड राजनीति में अभी भी भाजपा के लिए कोई खास जगह नहीं है, लेकिन यह रेत में घरौंदा बनाने की कोशिश जरूर है।

एक बात साफ है कि भाजपा चुनाव जीतने के लिए केवल राम लहर, हिंदुत्व और सुनहरे आर्थिक सपनो के भरोसे नहीं है। वह इसी के समानांतर गरीब कल्याण, रेवड़ी कल्चर, सियासी गोलबंदी, धार्मिक ध्रुवीकरण, मोदी के वैश्विक नेता बनने, भारत के विश्व गुरू होने की दिशा में आगे कूच करने तथा युवाओं का सपना सच होने के दावों के टूल्स का भी भरपूर उपयोग कर रही है। इस शोर में गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक विकास में छिपी विषमता, जातीय और साम्प्रदायिक तनाव जैसे मुद्दे तूती की आवाज बनकर रह जाते हैं।

इसमें दो राय नहीं कि बीते एक दशक में भाजपा ने यह साबित कर दिया है कि चुनाव प्रबंधन में उसका कोई सानी नहीं है और उस पर राजनीतिक बढ़त हासिल करनी है तो विरोधी दलों को अब भी नए उपकरण, नए तरीके और जुमले अपनाने होंगे। भाजपा को भाजपा के पिच पर नहीं हराया जा सकता।

प्रधानमंत्री के दावे में एक पेंच भाजपा द्वारा 370 सीटें अपने दम पर जीतने का है। यह आंकड़ा कहां से और कैसे आया? यह केवल शोशेबाजी है या फिर इसके पीछे भी कोई रणनीति है? यह सवाल इसलिए भी मौजूं है क्योंकि हाल में हुए ओपिनियन पोल भाजपा और एनडीए को तीसरी बार सत्ता तो दिला रहे हैं, लेकिन भाजपा की सीटों में बेहद मामूली इजाफा दिखा रहे है। 2019 में भाजपा ने अकेले 303 सीटें जीती थीं। यानी 370 तक पहुंचने के लिए उसे 67 सीटें और चाहिए। ये कहां से आएंगी?

जिन राज्यों में भाजपा एक या दो नंबर पर है, वहां वह अधिकतम सीटें पहले ही जीत रही है। अर्थात 67 सीटें उसे उन राज्यों में जीतनी होंगी, जहां क्षेत्रीय दल सत्ता में हैं। यह तभी संभव है, जब मोदी और रामलला की जबर्द्स्त आंधी चले। ऐसा फिलहाल तो नहीं लग रहा है। लेकिन यदि ऐसा कोई अंडर करंट है तो वह नतीजों में ही झलकेगा। संभव है कि पीएम द्वारा 370 का आंकड़ा बताने के पीछे कश्मीर से धारा 370 हटाने का संदेश निहित हो। यह जताने की कोशिश भी हो सकती है कि हमने अपने कोर एजेंडे को पूरा कर दिया है। लिहाजा हम ही तीसरी बार भी सत्ता के दावेदार हैं।

वरिष्ठ संपादक
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