Harela festival 2022: प्रकृति और मानव को जोड़ता है लोकपर्व हरेला
श्रावण मास में मनाये जाने वाला हरेला (Harela festival) सामाजिक रूप से अपना विशेष महत्व रखता तथा समूचे कुमाऊँ में अति महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक माना जाता है।
कुमाऊं अंचल का लोकप्रिय और महत्वपूर्ण त्योहार है हरेला (harela festival)। हरेला जैसा की नाम से ही पता चलता है इसका संबंध हरियाली से होता है। यह एक हिन्दू त्यौहार है। हरेला त्योहार वर्षा ऋतु के आगमन पर सावन महीने के पहले दिन पड़ता है, क्योंकि इस दिन सूर्य कर्क रेखा से मकर रेखा की तरफ बढ़ता है। इसको कर्कसंक्रांति भी कहा जाता है। इस देश में कितने ही पर्व ऐसे हैं, जो किसी राज्य विशेष को ही नहीं, बल्कि पूरे देश को जोड़ते हैं। हरेला त्यौहार कहां मनाया जाता है = उत्तराखंड का ऐसा ही पारंपरिक पर्व है हरेला।
हरेला पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार आता है-
- चैत्र माह में – प्रथम दिन बोया जाता है तथा नवमी को काटा जाता है।
- श्रावण माह में – सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है।
- आश्विन माह में – आश्विन माह में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है।
हरेला पर्व क्यों मनाया जाता है (why uttarakhand celebrates harela)
हरेला ग्रीष्म ऋतु की प्रचंड़ गर्मी के बाद हरियाली के साथ आता है। सावन माह पहले दिन से ही खूब बारिश होने लगती है और प्रकृति में हर जगह हरियाली छा जाती है। खेती-बाड़ी में अधिक से अधिक उत्पादन हो, इसलिए उत्तराखंड के लोग हरेला पर्व को बड़ी धूमधाम से मनाते है। हरेला बोना, देवताओं के डिकारे (शिव-पार्वती और गणेश की मिट्टी से बनी मूर्तियां) तथा हरेला को सर में धारण करना ये तीन बातें त्यौहार में खास होती है।
हरेला पर्व कब मनाया जाता है (When is Harela festival celebrated?)
हरेला पर्व श्रावण महीने में कर्क सक्रांति के दिन मनाया जाता है, जो चंद्र की चाल पर निर्भर ना होकर, पृथ्वी से सूरज की दिशा पर निर्भर होता है इसलिए यह हर साल 16 या 17 जुलाई को ही पड़ता है इस दिन सूरज कर्क राशि में प्रवेश करता है।
हरेला 2022 में कब पड़ेगा (Harela parva date)
साल 2022 में सूरज कर्क राशि में 16 जुलाई 11 बजकर 11 मिनट पर प्रवेश करेगा। इसी कारण उत्तराखंड के लोग हरेला को 16 जुलाई को ही मनाएंगे।
कैसे मनाया जाता है हरेला पर्व (How is Harela festival celebrated)
हरेला त्योहार के लिए 10 दिन पहले से 5 या 7 प्रकार के बीज जैसे – गेहूँ, जौ, सरसों, मक्का, गहत, भट्ट, और उड़द, परंपरागत रीति अनुसार उर्वरक मिट्टी भरके दो अलग-अलग टोकरीयों में बो कर देवताओं के स्थान (मंदिर) पर रख दिया जाता है। 10 दिन तक प्रकाश विहिन जगह मे रखी हुई टोकरी में तीसरे-चौथे दिन हरेला उग जाता है। 10 दिन तक संध्या करते समय रोज जल का छिड़काव किया जाता है।
9वें दिन हल्की गुड़ाई कर दि जाती है। ये दिन यानी 9वें दिन उगी हुई हरेला के पौधों के पास अलग-अलग प्रकार के फल रखे जाते है और उनके बीच में शिव-पार्वती, गणेश, कार्तिके देवता के डिकारे स्थापित कर दिये जाते है, कुछ घरों मे पंडित जी बुलाये जाते है जो 9वें दिन हरेला के पास फल के बीच स्थापित शिवजी के डिकारे के पास बैठ कर पूजा करते है। जिसमें खास तरिके के मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है।
मन्त्र : हरनात सुत्पन्ने हरकालि हरप्रिये। सर्वदा सस्यमूर्तिस्थे प्रणतार्तिहरे नम:।।
अर्थात, हे हारकाली। मैं तुम्हारे चरणों में अपना सर झुकाता हुँ (प्रणाम करता हुँ)। तुम सदा धान के खेतों में निवास करती हो और अपने भक्तों के दुख दूर करती हो।
मान्यता अनुसार यह भी कहा जा सकता है कि हरकाली पूजन शिव-पार्वती की विवाह जयंती है, इसी लिए उनके डिकारे बना के उनकी पूजा की जाती है। हरेले के पहले दिन शिव व उनके परिवार के लोगों के डिकारे एक साथ या अलग-अलग बनाये जाते है। शिव जी के डिकार इस लिए बनाये जाते है कि वे देवाधिदेव और हिन्दुवों के तिन देवताओं में से एक है। शिव जी देवताओं के देवता, पतियों के पति और भुवनेश्वर है।
हरेला पर्व का महत्व (importance of harela)
शिवार्चन यानी हरकाली पूजा के दुसरे दिन हमारा मुख्य पर्व हरेला मनाया जाता है। हरकाली पूजा, डिकारे बनाने की प्रथा ब्रह्मण परिवारों तक सीमित है, पर हरेला त्योहार बिना किसी भेद-भाव के साथ सब वर्गों के लोगों द्वारा बडेÞ उमंग व उत्साह से मनाया जाता है। हरेला बोने के दस दिन बाद परिवार के सयाने लोग हरेला काटते है और फल, पकवान आदि के साथ सबसे पहले अपने इष्टदेव को अर्पित करते है। उसके बाद परिवार की सबसे बड़ी महिला दादी, मां या दीदी द्वारा छोटे-बड़े सभी के सर में हरेला के तिनके रखते हुए आशीर्वाद स्वरूप ये बोलते है।
जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,
हिमाल में ह्यूं छन तक,
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये,
अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।”
कहि-कहि कुछ लोग हरेला के कुछ तिंके गोबर से दरवाजे की चौखट में चिपका देते है।
यहाँ लोगों में ये मान्यता है कि जो हरेला पर्व की उपेक्षा करेगा उसका कुछ ना कुछ अनिष्ट हो जायेगा। इस त्यौहार के समय नौकरी-पेशा करने वाले और घर से दूर रहने वाले विद्यार्थी कोशिश करते है कि वे घर में मौजूद रहें, अगर किसी कारणवश प्रवासी कुमाउँनी घर नहीं आ पाया हो तो उसे अच्छ्यत, पिठ्याँ, अशीक के साथ हरेला के तिनके भेज दिये जाते है।
पौधरोपण, मृदा परीक्षण, मौसम चक्र का द्योतक है हरेला
हरेला पर्व पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक है। इस पर्व से मौसम को पौधरोपण के लिए उपयुक्त माना जाता है। हरेला बोने के लिए उसी खेत की मिट्टी लाई जाती है जिसमें उचित पौधों के रोपण और अच्छी फसल का परीक्षण हो सके। सात या पांच प्रकार का अनाज बोया जाता है जो अनुकूल मृदा और मौसम चक्र का आभास कराता है। हरेला पर्व पौधरोपण, मृदा परीक्षण और मौसम चक्र का भी द्योतक है, लेकिन आज के दौर में वनों का जिस तरह दोहन हो रहा है, यह हमारी इस परंपरा पर कुठाराघात भी है।
हरियाली के प्रतीक हरेले का ऋग्वेद में भी है उल्लेख
हरेला का शाब्दिक अर्थ हर + एला अर्थात हर भगवान संकर और एला स्त्री सूचक होने से माता पार्वती का आभाष कराता है। लोक परंपरा में हरेला त्योार पर्व बन गाय। ऋग्वेद में कृषि कृणत्व अर्थात खेती करो के तहत इसका उल्लेख है। इस त्योहार को मनाने से समाज कल्याण की भावना विकसित होती है।
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